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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना इस दृष्टि से कुन्दकुन्दाचार्य निस्संदेह प्रथम रहस्यवादी कवि कहे जा सकते हैं। उन्होंने समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार आदि ग्रन्थों में इसका सुन्दर विश्लेषण किया है । ये ग्रन्थ प्राचीन जैन अंग साहित्य पर आधारित रहे हैं जहां आध्यात्मिक चेतना को जागृत करने का स्वर गुजिंत होता है । आचारांग मूल प्राचीनतम अंग ग्रन्थ है । यहां जैनधर्म मानव धर्म के रूप में अधिक मुखर हुआ है। वहां ‘आरिएहिं' शब्द से प्राचीन परम्परा का उल्लेख करते हुए समता को ही धर्म कहा है - समियाए धम्मे आरिएहिं पवेदिते।
___ आचारांग का प्रारम्भ वस्तुत: “इय मेगेसिंणो सण्णा भवइ" (इस संसार में किन्हीं जीवों को ज्ञान नहीं होता) सूत्र से होता है । इस सूत्र में आत्मा का स्वरूप तथा संसार में उसके भटकने के कारणों की ओर इंगित हुआ है । ‘संज्ञा' (चेतन) शब्द अनुभव और ज्ञान को समाहित किये हुये है । अनुभव मुख्यतः सोलह प्रकार के होते हैं - आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध मान, माया, लोभ, शोक, मोह, सुख, दुःख, मोह विचिकित्सा, शोक और धर्म । ज्ञान के पांच भेद हैं - मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवलज्ञान । इस सूत्र में विशिष्ट ज्ञान के अभाव की ही बात की गई है । इसका स्पष्ट तात्पर्य यह है कि व्यक्ति संसार में मोहादिक कर्मों के कारण भटकता रहता है । जो साधक यह जान लेता है वही व्यक्ति आत्मज्ञ होता है । उसी को मेधावी और कुशल कहा गया है । ऐसा साधक कर्मो से बंधा नहीं रहता। वह तो अप्रमादी बनकर विकल्प जाल से मुक्त हो जाता है । यहां अहिंसा, सत्य आदि का विवेचन मिलता है पर उसका वर्गीकरण नहीं दिखाई देता । उसी तरह कर्मो और उनके प्रभावों का वर्णन तो है