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________________ 10 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना इस दृष्टि से कुन्दकुन्दाचार्य निस्संदेह प्रथम रहस्यवादी कवि कहे जा सकते हैं। उन्होंने समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार आदि ग्रन्थों में इसका सुन्दर विश्लेषण किया है । ये ग्रन्थ प्राचीन जैन अंग साहित्य पर आधारित रहे हैं जहां आध्यात्मिक चेतना को जागृत करने का स्वर गुजिंत होता है । आचारांग मूल प्राचीनतम अंग ग्रन्थ है । यहां जैनधर्म मानव धर्म के रूप में अधिक मुखर हुआ है। वहां ‘आरिएहिं' शब्द से प्राचीन परम्परा का उल्लेख करते हुए समता को ही धर्म कहा है - समियाए धम्मे आरिएहिं पवेदिते। ___ आचारांग का प्रारम्भ वस्तुत: “इय मेगेसिंणो सण्णा भवइ" (इस संसार में किन्हीं जीवों को ज्ञान नहीं होता) सूत्र से होता है । इस सूत्र में आत्मा का स्वरूप तथा संसार में उसके भटकने के कारणों की ओर इंगित हुआ है । ‘संज्ञा' (चेतन) शब्द अनुभव और ज्ञान को समाहित किये हुये है । अनुभव मुख्यतः सोलह प्रकार के होते हैं - आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध मान, माया, लोभ, शोक, मोह, सुख, दुःख, मोह विचिकित्सा, शोक और धर्म । ज्ञान के पांच भेद हैं - मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवलज्ञान । इस सूत्र में विशिष्ट ज्ञान के अभाव की ही बात की गई है । इसका स्पष्ट तात्पर्य यह है कि व्यक्ति संसार में मोहादिक कर्मों के कारण भटकता रहता है । जो साधक यह जान लेता है वही व्यक्ति आत्मज्ञ होता है । उसी को मेधावी और कुशल कहा गया है । ऐसा साधक कर्मो से बंधा नहीं रहता। वह तो अप्रमादी बनकर विकल्प जाल से मुक्त हो जाता है । यहां अहिंसा, सत्य आदि का विवेचन मिलता है पर उसका वर्गीकरण नहीं दिखाई देता । उसी तरह कर्मो और उनके प्रभावों का वर्णन तो है
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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