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________________ उपस्थापना निगण्ठनाथपुत्त अथवा महावीर के आने पर इस आचारशैथिल्य को परखा गया । उसे दूर करने के लिए महावीर ने अपरिग्रह का विभाजन कर निम्नांकित पंच व्रतों को स्वीकार किया - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । महावीर के इन पंचव्रतों का उल्लेख जैन आगम साहित्य में तो आता ही है पर उनकी साधना के जो उल्लेख पालि साहित्य में मिलते हैं । वे ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण हैं । इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि पं. पदमचंद शास्त्री ने आगमों के ही आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि पार्श्वनाथ के पंच महाव्रत थे, चातुर्याम नहीं (अनेकान्त, जून १९७७) । इस पर अभी मंथन होना शेष है । महावीर की रहस्यवादी परम्परा अपने मूलरूप में लगभग प्रथम सदी तक चलती रही। उसमें कुछ विकास अवश्य हुआ, पर वह बहुत अधिक नहीं । यहां तक आते-आते आत्मा के तीन स्वरूप हो गये - अन्तरात्मा, बहिरात्मा और परमात्मा । साधक बहिरात्मा को छोडकर अन्तरात्मा के माध्यम से परमात्मपद को प्राप्त करता है । दूसरे शब्दों में आत्मा और परमात्मा में एकाकारता हो जाती है - "तिपयारो सो अप्पा परयंतबाहिरी हु देहीणं । तच्च परो झाइजइ, अंतोवाएण चयहि बहिरप्पा।। “अक्खाणि वहिरप्पा अन्तर अप्पाहु अत्थसंकल्पो । कम्मकलंक विमुक्को परमप्पा भण्णए देवो ।। १. विशेष देखिये - डॉ. भागचन्द जैन भास्कर का ग्रन्थ जैनिज्म इन बुद्धिस्ट लिटरेचर, तृतीय अध्याय-जैन ईथिक्स। २. मोक्खपाहुड-कुन्दकुन्दाचार्य ४ भ, पार्श्व के पंच महाव्रत, अनेकांत, वर्ष ३०, किरण १, पृ. २३-२७ जून मार्च १९७७ । ३. मोक्खपाहु।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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