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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना १. आदिकाल
वेद और उपनिषद् में ब्रह्म का साक्षात्कार करना मुख्य लक्ष्य माना जाता था । जैन रहस्यवाद जैसा हम ऊपर कह चुके हैं, ब्रह्म अथवा ईश्वर को ईश्वर के रूप में स्वीकार नहीं करता । यहां जैन दर्शन अपने तीर्थंकर को परमात्मा मानता है और उसके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलकर साधक स्वयं को उसी के समकक्ष बनाने को प्रयत्न करता है । वृषभदेव, महावीर आदि तीर्थंकर ऐसे ही रहस्यदर्शी महापुरुषों में प्रमुख हैं।
हम इस काल को सामान्यतः जैनधर्म के आविर्भाव से लेकर प्रथम शती तक निश्चित कर सकते हैं । जैन परम्परा के अनुसार तीर्थकर आदिनाथ ने हमें साधना पद्धति का स्वरूप दिया । उसी के आधार पर उत्तर कालीन तीर्थकर और आचार्यों ने अपनी साधना की। इस सन्दर्भ में हमारे सामने दो प्रकार की रहस्य साधनाएं साहित्य में उपलब्ध होती हैं - १. पार्श्वनाथ परम्परा की रहस्य साधना और २. निगंठ नातपुत्त परम्परा की रहस्य साधना ।
भगवान पार्श्वनाथ जैन परम्परा के २३ वें तीर्थंकर कहे जाते हैं। उनसे भगवान महावीर, जिन्हें पालि साहित्य में निगण्ठनातपुत्त के नाम से स्मरण किया गया है, लगभग २५० वर्ष पूर्व अवतरित हुए थे। त्रिपिटक में उनके साधनात्मक रहस्यवाद को चातुर्याम संवर के नाम से अभिहित किया गया है । ये चार संवर इस प्रकार अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रह है । उत्तराध्ययन आदि ग्रन्थों में भी इनका विवरण मिलता है । पार्श्वनाथ के इन व्रतों में से चतुर्थ व्रत में ब्रह्मचर्य व्रत अन्तर्भूत था। पार्श्वनाथ के परिनिर्वाण के बाद इन व्रतों के आचरण में शैथिल्य आया और फलतः समाज ब्रह्मचर्य व्रत से पतित होने लगा । पार्श्वनाथ की इस परम्परा को जैन परम्परा में पार्श्वनाथ' अथवा पासत्थ' कहा गया है।