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उपस्थापना
आ जायेंगे । प्रसन्नता का विषय है कि आज विद्वान ‘नास्तिक' की इस परिभाषा को स्वीकार नहीं करते । नास्तिक वही है, जिसके मत में पुण्य और पाप का कोई महत्त्व न हो । जैनदर्शन इस दृष्टि से आस्तिक दर्शन है । उसमें स्वर्ग, नरक, मोक्ष आदि की व्यवस्था स्वयं के कर्मो पर आधारित है । उसमें ईश्वर अथवा परमात्मा साधक के लिए दीपक का काम अवश्य करता है, परन्तु वह किसी पर कृपा नहीं करता, इसलिए कि वह वीतरागी है।
जैन दर्शन की उक्त विशेषता के आधार पर रहस्यवाद की आधुनिक परिभाषा को हमें परिवर्तित करना पड़ेगा । जैन चिंतन शभोपयोग को शद्धोपयोग की प्राप्ति में सहायक कारण मानता अवश्य है पर शुद्धोपयोग की प्राप्ति हो जाने पर अथवा उसकी प्राप्ति के पथ में पारमार्थिक दृष्टि से उसका कोई उपयोग नहीं । इस पृष्ठभूमि पर हम रहस्यवाद की परिभाषा इस प्रकार कर सकते हैं।
___ “अध्यात्म की चरम सीमा की अनुभूति रहस्यवाद है । यह वह स्थिति है, जहां आत्मा विशुद्ध परमात्मा बन जाता है और वीतरागी होकर चिदानन्द रस का पान करता है'।
___ रहस्यवाद की यह परिभाषा जैन साधना की दृष्टि से प्रस्तुत की गयी है । जैन साधना का विकास यथासमय होता रहा है । यह एक ऐतिहासिक तथ्य है । यह विकास तत्कालीन प्रचलित जैनेतर साधनाओं से प्रभावित भी रहा है । इस आधार पर हम जैन रहस्यवाद के विकास को निम्न भागों में विभाजित कर सकते हैं - १. आदिकाल - प्रारम्भ से लेकर ई. प्रथम शती तक । २. मध्यकाल - प्रथम - द्वितीय शती से ७-८ वीं शती तक । ३. उत्तरकाल ८ वीं ९ वीं शती से आधुनिक काल तक ।