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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना शक्ति से अपना शांत और निश्छल सम्बन्ध जोड़ना चाहती है । यह सम्बन्ध यहां तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं रह जाता।
और भी अन्य आधुनिक विद्वानों ने रहस्यवाद की परिभाषाएं की हैं । उन परिभाषाओं के आधार पर रहस्यवाद की सामान्य विशेषताएं इस प्रकार कही जा सकती हैं -
१. आत्मा और परमात्मा में ऐक्य की अनुभूति । २. तादात्म्य ३. विरह-भावना ४. भक्ति, ज्ञान और योग की समन्वित साधना ५. सद्गुरु और उसका सत्संग ।
प्रायः ये सभी विशेषताएं वैदिक संस्कृति और साहित्य में अधिक मिलती हैं । जैन रहस्यवाद मूलतः इन विशेषताओं से कुछ थोड़ा भिन्न था । उक्त परिभाषाओं में साधक ईश्वर के प्रति आत्मसमर्पित हो जाता है । पर जैनधर्म ने ईश्वर का स्वरूप उस रूप में नहीं माना जो रूप वैदिक संस्कृति में प्राप्त होता है । वह हमारी सृष्टि का कर्ता-हर्ता और धर्ता नहीं है । इसी भिन्नता के कारण शायद प्राचीन परम्परा में जैन दर्शन को नास्तिक कह दिया गया था । वहां नास्तिकता का तात्पर्य था, वेद-निंदक । परन्तु यह वर्गीकरण नितान्त आधार हीन था । इसमें तो जैन और बौद्ध के अतिरिक्त वैदिक शाखा के ही मीमांसा और सांख्य-दर्शन भी इस नास्ति की परिभाषा की सीमा में
१. कबीर का रहस्यवाद, पृ. ९