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________________ 14 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना शिव विणु सत्ति ण वावइ सिउ पुणु सत्ति विहीणु । दोहि मि जाणहि सलु-जगु दुज्झइमोह विलीणु ।। वही ५५।। मुनि रामसिंह के बाद रहस्यात्मक प्रवृत्तियों का कुछ और विकास होता गया । इस विकास का मूल कारण भक्ति का उद्रेक था । इस भक्ति का चरम उत्कर्ष महाकवि बनारसीदास जैसे हिन्दी जैन कवियों में देखा जा सकता है । नाटक समयसार, मोहविवेक-युद्ध (बनारसीदास) आदि ग्रंथों में उन्होंने भक्ति, प्रेम और श्रद्धा के जिस समन्वित रूप को प्रस्तुत किया है वह देखते ही बनता है । 'सुमति'को पत्नी और चेतन को पति बनाकर जिस आध्यात्मिक विरह को उकेरा है, वह स्पृहणीय है । आत्मा रूपी पत्नी और परमात्मा रूपी पति के वियोग का भी वर्णन अत्यन्त मार्मिक बन पडा है । अन्त में आत्मा को उसका पति उसके घर अन्तरात्मा में ही मिल जाता है । इस एकत्व की अनुभूति को महाकवि बनारसीदास ने इस प्रकार वर्णित किया है - पिय मेरे घट मैं पिय माहि । जल तरंग ज्यों दुविधा नाहि ।। पिय मो करता मैं करतूति । पिय ज्ञानी मैं ज्ञान विभूति ।। पिय सुख सागर मैं सुख-सींव । पिय सुख-मंदिर में शिव-नींव ।। पिय ब्रह्म मैं सरस्वति नाम । पिय माधव मो कमला नाम।। पिय शंकर मैं देवि भवानि । पिय जिनवर मैं केवल बानि ।। ब्रह्म साक्षात्कार रहस्यवादात्मक प्रवृत्तियों में अन्यतम है । जैन साधना में परमात्मा को ब्रह्म कह दिया गया है । बनारसीदास ने तादात्म्य अनुभूति के सन्दर्भ में अपने भावों को निम्न प्रकार से व्यक्त किया है - "बालक तुहं तन चितवन गागरि कूटि, अंचरा गौ फहराय सरम गै छूटि, बालम ।।१।। १. बनारसीविलास, पृ. १६१ ।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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