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रहस्यभावना के साधक तत्त्व भले ही हो जाये पर लुप्त नहीं होता। जिस प्रकार सुवर्ण कुधातु के संयोग से अग्नि में अनेक रूप धारण करता है फिर भी वह अपने स्वर्णत्व की नहीं छोड़ता।" जीव की यह शुद्धावस्था चैतन्य रूप है, अनन्त गुण, अनन्त पर्याय और अनन्त शक्ति सहित है, अमूर्तिक है, शिव है, अखंडित है, सर्वव्यापी है।
बनारसीदास के नाम पर पीताम्बर द्वारा लिखी ज्ञानवावनी में जीव के स्वरूप को बहुत अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया गया है। उसके अनुसार जीव शुद्ध नय से शुद्ध, सिद्ध, ज्ञायक आदि रूप है। परन्तु कर्मादि के कारण वह उन्हें प्राप्त नहीं कर पाता। यहीं चिदानन्द को राजा मानकर कर्म पुद्गलों से उसका संघर्ष भी बताया है। साथ ही चेरी, सोना, परमार्थ, प्रपंच, चौपट आदि रूपकों के माध्यम से उसके बाह्य स्वरूप को स्पष्ट किया है। बनारसीदास ने जीव के शुद्ध स्वरूप को शिव और ब्रह्म समाधि माना तथा शरीर में उसके निवास को उसी प्रकार बताया जिस प्रकार फल-फूलादि में सुगन्ध, दही-दूध आदि में घी, काठ पाषाणदि में पावक। इसी प्रकार का कथन मुनि महनन्दि का भी है । वे कहते हैं कि जिस प्रकार दूध में घी, तिल से तेल तथा लकड़ी में अग्नि रहती है उसी प्रकार शरीर में आत्मा निवास करती है :
खीरह मज्झह जैम धिउ, तिलह मंज्झि जिम तिलु। कट्टिहु वासणुं जिम वसइ, निम देहहि देहिल्लु।
बनारसीदास ने आत्मा और शिव को सांगरूपक में प्रस्तुत कर शिव के समूचे गुण सिद्ध में घटाये हैं। शिव को उनहोंने ब्रह्म, सिद्ध और भगवान भी कहां है। समूची शिवपच्चीसी में उनके इस सिद्धान्त की मार्मिक व्याख्या उपलब्ध है। तदनुसार जीव और शिव दोनों एक हैं।