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________________ हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना ६२ रूपचन्द ने चेतन को चतुर सुजान कहकर अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप को पहचानने के लिए उद्बोधित करते हैं और कहते हैं कि पर पदार्थ अपने कभी भी नहीं हो सकते - 'रूपचन्द चितचेति नर, अपनी न होइ निदान' (हिन्दी पद संग्रह, पद ६२) । क्या औस से कभी प्यास सकती है? क्या विषय-सुख से कभी सहज - शाश्वत् सुख प्राप्त बुझ हो सकता है ? इसलिए रे चेतन ! पर-पदार्थो से प्रीति मत कर। तुम दोनों का स्वभाव बिल्कुल भिन्न है। तू विवेकी है और पर पदार्थ जड़ है। ऐसी स्थिति में तू कहाँ उनमें फँसा हुआ है - जिय जिन करहिं पर सौं प्रीति । एक प्रकृति न मिलै जासौं, को मरे तिहि नीति । - ६३ 270 बुधजन को अज्ञानी जीव के इन कार्यो पर अचंभा होता है कि वह पाप कर्म को भी धर्म से सम्बद्ध करता है - पाप काज करि धन कौ चाहै, धर्म विषै मैं बतावै छै ।" इसलिए मनराम तो सीधा कह देते हैं - ‘चेतन इह धर नाहीं तेरौ ' । मिथ्यात्व के कारण ही तूने इसे अपना घर माना है। सद्गुरु के वचन रूपी दीपक का प्रकाश मिलने पर यह तेरा आन-अंधकार आने आप ध्वस्त हो जायेगा । ६५ भैया भगवतीदास आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए चेतन को सम्बोधते हुए कहते हैं - रे मूढ, आत्मा को पहिचान । वह ज्ञान में हैं और ध्यान में है। न वह मरता है और न उत्पन्न होता है, न राव है न रंक । वह तो ज्ञान निधान है। आत्मप्रकाश करता है और अष्ट कर्मो का नाश करता है । "सुनो राय चिदानन्द, तुम अनंत काल से इन्द्रिय सुख में रमण कर रहे हो फिर भी तृप्त नहीं हुए । ६७
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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