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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
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रूपचन्द ने चेतन को चतुर सुजान कहकर अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप को पहचानने के लिए उद्बोधित करते हैं और कहते हैं कि पर पदार्थ अपने कभी भी नहीं हो सकते - 'रूपचन्द चितचेति नर, अपनी न होइ निदान' (हिन्दी पद संग्रह, पद ६२) । क्या औस से कभी प्यास सकती है? क्या विषय-सुख से कभी सहज - शाश्वत् सुख प्राप्त बुझ हो सकता है ? इसलिए रे चेतन ! पर-पदार्थो से प्रीति मत कर। तुम दोनों का स्वभाव बिल्कुल भिन्न है। तू विवेकी है और पर पदार्थ जड़ है। ऐसी स्थिति में तू कहाँ उनमें फँसा हुआ है - जिय जिन करहिं पर सौं प्रीति । एक प्रकृति न मिलै जासौं, को मरे तिहि नीति ।
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बुधजन को अज्ञानी जीव के इन कार्यो पर अचंभा होता है कि वह पाप कर्म को भी धर्म से सम्बद्ध करता है - पाप काज करि धन कौ चाहै, धर्म विषै मैं बतावै छै ।" इसलिए मनराम तो सीधा कह देते हैं - ‘चेतन इह धर नाहीं तेरौ ' । मिथ्यात्व के कारण ही तूने इसे अपना घर माना है। सद्गुरु के वचन रूपी दीपक का प्रकाश मिलने पर यह तेरा आन-अंधकार आने आप ध्वस्त हो जायेगा ।
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भैया भगवतीदास आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए चेतन को सम्बोधते हुए कहते हैं - रे मूढ, आत्मा को पहिचान । वह ज्ञान में हैं और ध्यान में है। न वह मरता है और न उत्पन्न होता है, न राव है न रंक । वह तो ज्ञान निधान है। आत्मप्रकाश करता है और अष्ट कर्मो का नाश करता है । "सुनो राय चिदानन्द, तुम अनंत काल से इन्द्रिय सुख में रमण कर रहे हो फिर भी तृप्त नहीं हुए ।
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