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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
महात्मा आनन्दघन ने पौराणिक शब्दों और अर्थो को छोड़कर आत्मा के राम आदि नये शब्द और उनके नये अर्थ दिये हैं । 'राम' वह है जो निज पद में रमे, 'रहीम' वह है जो दूसरों पर रहम करें, 'कृष्ण' वह है जो कर्मों का क्षय करे, 'महादेव' वह है जो निर्वाण प्राप्त करे, 'पार्श्व' वह है जो शुद्ध आत्मा का स्पर्श करे, ब्रह्म वह है जो आत्मा के सत्य रूप को पहिचाने । वह ब्रह्म निष्कर्म और विशुद्ध है :
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निज पद रमे राम सौ कहिये, रहिम करे रहिमान री । करशे कर्म काम सौ कहिये, महादेव निर्वाण री ।। परसे रूप पारस सौ कहिए, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्म री । इह विध साधौ आप आनंदघन, चेतनमय निःकर्म री ।।
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जैनदर्शन वस्तु के सम्पूर्ण स्वरूप पर विचार करने के लिए नय-प्रणाली का उपयोग करता है। तदनुसार वस्तु के मूल अथवा शुद्ध स्वरूप को निश्चय-नय और अशुद्ध स्वरूप को व्यवहार नय के अन्तर्गत रखा जाता है । जीव की निष्कर्मावस्था पर शुद्ध अथवा निश्चयनय से और सकर्मावस्था पर अशुद्ध अथवा व्यवहार नय से विचार किया जाता है । मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य में साधकों ने इन दोनों प्रणालियों को यथासमय अपनाया। आत्मा के स्वरूप पर भी उन्होंने इन्हीं दोनों प्रणालियों के आधार पर विचार किया है।
बुद्ध चिदानन्दरूप अपना भाव ही ज्ञान है उसी से मायामोहादि दूर हो जाते हैं और सिद्धि प्राप्त हो जाती है ।
ज्ञान निज भाव शुद्ध चिदानन्द,
चीततो मूको मायामोह गेह देखिए ।
आत्मा का मूल गुण ज्ञान है। वह कर्मो के प्रभाव से प्रच्छन्न