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रहस्यभावना के साधक तत्त्व
'जियौ तोहि समझायौ सौ सौ बार ।
देख सगुरु की परहित में रति हित- उपदेश सुनायी सौ सौ बार । विषय भुजंग से दुख पायो, पुनि तिनसों लपटाये । स्वपद विसार रच्यो पर पद में, मदरत ज्यौं वीरायी ।। तन धन स्वजन नहीं हैं तेरे नाहक नेह लगायो । क्यों न तजै भ्रम, चाख समामृत, जो नित संत सुहायो । । अबहू समुझि कठिन यह नरभव, जिनवृष विना गमायो । ते विलखें मनि डार उपधि में, दौलत को पछतायो ।।
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जीव के मिथ्याज्ञान की ओर निहार कर द्यानतराय कहे बिना नहीं रह पाते- जानत क्यों नहि हे नर पाते - जानत क्यों नहि हे नर आतम ज्ञानी,
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राग द्वेष पुद्गल की संगति निहचै शुद्ध निशानी । "
तू मैं मैं की भावना से क्यों ग्रसित है ? संसार का हर पदार्थ क्षणभंगुर है पर अविनाशी है -
मैं मैं काहे करत है, तन धन पवन निहार ।
तू
अविनाशी आतमा, बिनासीत संसार ।।
परन्तु माया मोह के चक्कर में पड़कर स्वयं की शक्ति को भूल गया है। तेरी हर श्वासोच्छवास के साथ सोहं-सोहं के भाव उठते हैं। यही तीनों लोकों का सार है। तुम्हें तो सोहं छोड़कर अजपाजप में लग जाना चाहिए।" उदयराज जती ने प्रीति को सांसारिक मोह का कारण बताकर उससे दूर रहने का उपदेश दिया है -
उदैराज कहैं सुणि आतमा इसी प्रीति जिणउँ करै । "