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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना वीरचंद (१७वीं शती) ने इसी संदर्भ में संबोधसत्ताणुभावना में कतिपय शिक्षाप्रद एवं भावपूर्ण दोहे दिये हैं, यथा -
दया बीज विण जे क्रिया ते सधली अप्रमाण, शीतल सजल जल भर्या नेम चंडाल न बाण। कंठ विहणूंगान जिम, जिम विण व्याकरणे वाणि, न सोहे धर्मदया बिना, जिम भोयण विण पाणि ।।
भैया भगवतीदास ने जीवन की तीनों अवस्थाओं का सुन्दर चित्रण करके संसारी को उद्बोधित किया है -
भूलि गयी निज रूप अनुपम, मोह-महामद के मतवारे । तेरोहूदाव बन्दो अब के तुमचेतन क्यों नहीचेतन हारे ।।"
तुम्हारे घट में चिदानन्द बैठा है उससे रूप को देखने-परखने का उपाय कीजिए-चिदानन्द भैया विराजित है घट मांहि,
ताके रूप लखिये को उपाय कछु करिये।।
पर पदार्थो के संसर्ग से आत्मधर्म को मत भूल। सम्यग्ज्ञानी होकर परमार्थ प्राप्त कर, और शुद्धानुभव रस का पान कर।
___ व्यक्ति भोगों की और सरलता पूर्वक दौड़ता है । उसकी इस प्रवृत्ति को स्पष्ट करते हुए कविवर दौलतराम ने “मान ले या सिख मोरी, झुकै मत भोगन ओरी' कहकर भोगवासना को भुजंग के शरीर (भोग) के समान बताया है जो देखने में तो सुन्दर लगता है पर स्पर्श करते ही डस लेता है और मर्मान्तिक पीड़ा का कारण बनता है। जिस प्रकार तोता आकाश में चलने की अपनी गति को भूलकर नलिनी के फंदे में फंसता है और पश्चात्ताप करता है उसी प्रकार रे आत्मन्, तू अपने स्वरूप को भूलकर दुःख सागर में डुबकियां लगाता है। इसलिए वे चेतन को उस और से मुड़ने के लिए कहते हैं -