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रहस्यभावना के साधक तत्त्व जाता है। उसका मन तथाकथित सांसारिक सुखों की ओर से हटकर स्थायी सुख की प्राप्ति में लग जाता है। अब वह समझने लगता है कि सांसारिक सुख वस्तुतः वास्तविक सुख नहीं बल्कि सुखाभास है। नरभव दुर्लभता का चिन्तन इस चिन्तन को और आगे बढ़ा देता है। २. आत्म सम्बोधन
नरभव दुर्लभता, शरीर आदि विषयों पर चिन्तन करने के साथ ही साधक अपने चेतन को आत्म सम्बोधन से सन्मार्ग पर लगाने की प्रेरणा देता है। इससे असद्वृत्तियाँ मन्द हो जाती हैं और साध्य की ओर भी एकाग्रता बढ़ जाती है साधक स्वयं आगे आता है और संसार के पदार्थो की क्षणभंगुरता आदि पर सोचता है।
बनारसीदास अपने चेतन को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि रे चेतन, तू त्रिकाल में अकेला ही रहने वाला है। परिवार का संयोग तो ऐसा ही है, जैसे नदीनाव का संयोग होता है। जहाँ संयोग होता है वहां वियोग भी निश्चित ही है। यह संसार असार है, क्षणभंगुर है। बुलबुले के समान सुख, संपत्ति, शरीर आदि सभी कुछ नष्ट होने वाले हैं। तू मोह के कारण उनमें इतना अधिक आसक्त हो गया है कि आत्मा के समूचे गुणों को भूल गया है। 'मैं मैं' के भाव में चतुर्गतियों में भ्रमण करता रहा। अभी भी मिथ्यामत को छोड़ दे और सद्गुरु की वाणी पर श्रद्धा कर ले। तेरा कल्याण हो जायेगा। रे चेतन, तू अभी भी मिथ्याभ्रम की घनघोर निद्रा में सोया हुआ है। जबकि कषाय रूप चार चोर तुम्हारे घर को नष्ट किये दे रहे हैं -
चेतन तुहु जनि सोवहु नींद अज्ञोर । चार चोर घर मूसंहि सरबस तोरो ।