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________________ 262 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना यह तो जड़, तू ज्ञान-अरूपी, तिल तुप क्यों गुरु बरना हो । राग-द्वेष तजि, भज समता कौं, कर्म साथ के हरना हो ।।२।। यों भव पाय विषय-सुख सेहा, गज चढ़ि ईंधन ढोना हो । 'बुधजन' समुझि सेय जिनवर-पद, ज्यों भवसागर तरना हो ।।३।। ___ कविवर विषयासक्त व्यक्ति की आहट को पहचानते हैं। इसलिए वे कहते हैं कि तुमने अभी तक बहुत विगार किया है अपना। यह नरभव मुक्ति-महल की सीढी है, संसार-सागर से पार कराने वाला तट है फिर क्यों इसे व्यर्थ खो रहा है "अरे हाँ तैं तो सुधरी बहुत विगारी । ये गति मुक्ति महल की पौरी पाप रहत क्यों पिछारी।" (बुधजन विलास, पद २६) भूधरदास सचेत होकर नरभव की सफलता की बात करते हैं - अरे हा चेतो रे भाई। मानुष देह लही दुलही, सुधरी उधरी भवसंगति पाई । जे करनी वरनी करनी नहिं, समझी करनी समझाई । यों शुभ थान जग्यौ उर ज्ञान, विषै विषपान तृष न बुझाई । पारस पाव सुधारस भूधर, भीख के मांहि सुलाज न आई ।। (भूधर विलास, पद ४६) बिहारीदास को नरभव व्यर्थ करना समुद्र में राई फेंक कर पुनः प्राप्त करना जैसा लगा - "आतम कठिन उपाय पाय नरभव क्यों तजै राई उदधि समानी फिर ढूंढ नहीं पाइये।"""नरभव दुर्लभता के चिन्तन के साथ ही साधक का मन संसार और शरीर की नश्वरता पर भी टिक
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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