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________________ रहस्यभावना के साधक तत्त्व 261 तो कभी वन के, कभी शरीर से राग करता है तो कभी परिवार से। उसे यह ध्यान नहीं कि 'आज कालि पीजरे सों पंछी उड़ जातु है।' रे चिदानंद, तुम अपने मूल स्वरूप पर विचार करो। जब तक तुम और रूप में पगे रहोगे, तब तक वास्तविक सुख तुम्हें नहीं मिल सकेगा। इन्द्रिय सुख को यदि तुम वास्तविक सुख मानते हो तो इससे अधिक भूल तुम्हारी और क्या होगी? यह सुख क्षणिक है और तुम्हारा स्वरूप अविनाशी है। ऐसा नरजन्म पाकर विवेकी बनो और कर्मरोग से मुक्त होओ, इसी में कल्याण है। अन्यथा पश्चात्ताप करना पड़ेगा। तुमने इतनी गाढ़ निद्रा ली जो साधारणतः और कोई नहीं लेता। अब तुम्हारे हाथ चिन्तामणि आया है, नरभव पाया है इसलिए घट की आंखें खोल और जौहरी बन। संसार की करुण स्थिति को देखकर भी यह मूढ नर भयभीत नहीं होता। इस मनुष्य जन्म को पाकर सोते-सोते ही व्यतीत कर दिया जाय तो बहुत बढ़ी अज्ञानता होगी। उस समय की कोई कीमत नहीं लगायी जा सकती हैं एक-एक पल उसका अमूल्य है। इसलिए कवि ने 'चेतन नरभव पाय कै, हो जानि वृथा क्यों खोवै छै"का उद्घोष किया है। दौलतराम ने चतुर्गति के दुःखों का वर्णन करते हुए “दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि त्यौं पर्याय लही त्रसतणी' कहकर मनुष्य को सचेत किया है। बुधजन के भावों को देखिये, कितनी आतुरता और व्यग्रता दिखाई दे रही है। उनके शब्दों में :नरभव पाप फेरि दुःख भरना, ऐसा काज न करना हो । नाहक ममत ठानि पुद्गलसों, करम जाल क्यों परना हो ।। नरभव० ।।१।।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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