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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना इसलिए तू राग द्वेष आदि छोड़कर और कनक-कामिनी से सम्बन्ध त्याग अचेतन पदार्थों की संगति में तू सब कुछ भूल गया। तुझे यह तो समझना चाहिए था कि चकमक में कभी आग निकलती नहीं दिखती।“ आगे कवि अपनी आत्मा को सम्बोधते हुए कहते हैं - 'तू आतम गुन जानि रे जावि, साधु वचन मनि आनि रे आनि। भरत चक्रवर्ती, रावण आदि पौराणिक महापुरुषों का उदाहरण देकर वे और भी अधिक स्पष्ट करते हैं कि अन्त समय आने पर “और न तोहि छुड़ावन हार"।"
यह संसारी जीवात्मा पर पदार्थों में अधिक रुचि दिखाता है और स्वयं अपने गुणों को भूल जाता है - चेतन उल्टी चाल चले।
जड़ संगत तैं जड़ता व्यापी निजगुन सकल टले ।
यह चेतन बार-बार मोह में फंस जाता है इसलिए वे उसे अपने आपको सम्भालने को कहते हैं -
चेतन तोहि न नेक संसार, | नख शिख लों दृढ़ बन्धन बैठे कौन निखार।"
इसीलिए बनारसीदास संसारी जीव को 'भौंदू' कहकर सम्बोधित करते हैं। उनके इस शब्द में कितनी यथार्थ अभिव्यक्ति हुई है यह देखते ही बनता है। उनका कथन है - रे भौंदू, ये जो चर्म चक्षु हैं जिनसे तुम पदार्थों का दर्शन करते हो, वस्तुतः ये तुम्हारी नहीं हैं। उनकी उत्पत्ति भ्रम से होती है और जहां भ्रम होता है वहां श्रम होता है। जहां श्रम होता है वहां राग होता है। जहां राग होता है वहां मोहादिक भाव होते हैं, जहां मोहादिक भाव होते हैं वहां मुक्ति प्राप्ति