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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना भूधरदास को भी श्रीगुरु के उपदेश अनुपम लगते हैं इसलिए वे सम्बोधित कर कहते हैं। - “सुन ज्ञानी प्राणी, श्रीगुरु सीख सयानी। गुरु की यह सीख रूप गंगा नदी भगवान महावीर रूपी हिमाचल से निकली, मोह-रूपी महापर्वत को भेदती हुई आगे बढ़ी, जग को जड़ता रूपी आतप को दूर करते हुए ज्ञान रूप महासागर में गिरी, सप्तभंगी रूपी तरंगे उछलीं। उसको हमारा शतशः वन्दन। सद्गुरु की यह वाणी अज्ञानान्धकार को दूर करने वाली है।
बुधजन सद्गुरु की सीख को मान लेने का आग्रह करते हैं - “सुठिल्यौ जीव सुजान सीख गुरु हित की कही। रुल्यौ अनन्ती बार गति-गति सातान लही। (बुधजन विलास, पद ९९), गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान के प्याले से बुधजन घोर जंगलों से दूर हो गये :
गुरु ने पिलाया जो ज्ञान प्याला । यह बेखबरी परमावां की निजरस में मतवाला । यों तो छाक जात नहिं छिनहूं मिटि गये आन जंजाल । अद्भुत आनन्द मगन ध्यान में बुद्धजन हाल सम्हाला ।।
- बुधजन विलास, पद ७७ समय सुन्दर की दशा गुरु के दर्शन करते ही बदल जाती है और पुण्य दशा प्रकट हो जाती है - आज कूधन दिन मेरउ। पुण्यदशा प्रगटी अब मेरी पेखतु गुरु मुख तेरउ।। (ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ. १२९) साधुकीर्ति तो गुरु दर्शन के बिना विह्वल-से दिखाई देते है। इसलिए सखि से उनके आगमन का मार्ग पूछते हैं। उनकी व्याकुलता निर्गुण संतों की व्याकुलता से भी अधिक पवित्रता लिए हुए है (ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ.९१)