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रहस्यभावना के साधक तत्त्व वीर हिमाचल तै निकसी, गुरु गौतम के मुखकुण्ड ढरी है। मोह महाचल भेद चली, जग की जड़ता तप दूर करी है ।। ज्ञान पयोनिधिमाहिरुली, बहुभंग-तरंगिनि सौंउछरी है। ताशचि शारद गंगनदीप्रति, मैं अंजुरी निज सीस धरी है।"
इस प्रकार सद्गुरु और उसकी दिव्य वाणी का महत्त्व रहस्यसाधना की प्राप्ति के लिए आवश्यक है। सद्गुरु के प्रसाद से ही सरस्वती। और एकचित्तता की प्राप्ति होती है। ब्रह्म मिलन का मार्ग यही सुझाता है । परमात्मा से साक्षत्कार कराने में सद्गुरु का विशेष योगदान रहता है। माया का आच्छन्न आवरण उसी के उपदेश और सत्संगति से दूर हो पाता है। फलतः आत्मा विशुद्ध बन जाता है उसी विशुद्ध आत्मा को पूज्यपाद ने निश्चय नय की दृष्टि से सद्गुरु कहा है।
प्रायः सभी दार्शनिकों ने नरभव की दुर्लभता को स्वीकार किया है। यह सम्भवतः इसलिए भी होगा कि ज्ञान की जितनी अधिक गइराई तक मनुष्य पहुंच सकता है। उतनी गहराई तक अन्य कोई नहीं। साथ ही यह भी स्थायी तथ्य है कि जितना अधिक अज्ञान मनुष्य में हो सकता है उतना और दूसरे में नहीं। ज्ञान और अज्ञान दोनों की प्रकर्षता यहां देखी जा सकती है। इसलिए आचार्यों ने मानव की शक्ति का उपयोग उसके अज्ञान को दूर करने में लगाने के लिए प्रेरित किया है। एतदर्थ सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि साधक के मन में नरभव की दुर्लभता समझ में आ जाय। महात्मा बुद्ध ने भी अनेक बार अपने शिष्यों को इसी तरह का उपदेश दिया था।
__मन की चंचलता से दुःखित होकर रूपचन्द कह उठते है - "मन मानहि किन समझायो रे।" यह नरभव-रत्न अथक प्रयत्न करने