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________________ रहस्यभावना के साधक तत्त्व 257 वंदक में समताभावी हो, वीतरागी हो, दुर्धर तपस्वी हो, अपरिग्रही हो, संयमी हो । ऐसे ही गुरु भवसागर से पार करा सकते हैं - कब हौं मिलैंमोहि श्रीगुरु मुनविर करि हैं भवोदधिपाराहो । भोग उदास जोग जिन लीन्हों छाडि परिग्रह मारा हो ।। कंचन--कांच बराकर जिनके, निदंक-बंधक सारा हो । दुर्धर तप तपि सम्यक् निजघर मन वचन कर धारा हो ।। ग्रीषम गिरि हिम सरिता तीरे पावस तरुतर ठारा हो । करुणा मीन हीन त्रस थावर ईर्यापथ समारा हो ।। मास छमासउपास बासवन पासुक करत अहारा हो। आरत रौद्र लेश नहिं जिनके धर्म शुक्ल चित धारा हो।। ध्यानारूढ़ गुढ़ निज आतम शुद्ध उपयोग विचारा हो। आप तरहि औरनि को तारहिं, भव जल सिन्धु अपारा हो। दौलत ऐसे जैन जतिन को निजप्रति धोक हमारा हो।। (दौलत विलास, पद ७२) द्यानतराय को गुरु के समान और दूसरा कोई दाता दिखाई नहीं दिया। तदनुसार गुरु उस अन्धकार को नष्ट कर देता है जिसे सूर्य भी नष्ट नहीं कर पाता, मेघ के समान सभीपर समानभाव से निस्वार्थ होकर कृपा जल वर्षाता है, नरक तिर्यंच आदि गतियों से जीवों को लाकर स्वर्ग-मोक्ष में पहुंचाता है अतः त्रिभुवन में दीपक के समान प्रकाश करनेवाला गुरु ही है। वह संसार सागर से पार लगाने वाला जहाज है। विशुद्धमन से उसके पद-पंकज का स्मरण करना चाहिए। कवि विषयवासना में पगे जीवों को देखकर सहानुभूतियों पूर्वक कह उठता है जो तजै विषय की आसा, द्यानत पावै विवासा । यह सतगुरु सीख बनाई काहूं विरलै के जिय आई।।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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