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________________ 248 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना रोको अन्यथा यह तुम्हारे शील रूप वन को तहस-नहस कर देगा। फलतः तुम्हें संसार में परिभ्रमण करते रहना पड़ेगा - अरे मणकरह म रइ करहि इंदियविसय सुहेण । सुक्खु णिरंतर जेहि णवि मुच्चहि ते वि खणेण ।। अम्मिय इहु मणु हत्थिया विझहं जंतउ वारि । तं भंजेसइ सीलवणु पुणु पडिसइ संसारि ।। भगवतीदास को मन सबसे अधिक प्रबल लगा। त्रिलोकों में भ्रमण कराने वाला यही मन है वह दास भी है। उसका स्वभाव चंचलता है उसे वश में किये बिना मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। मन को ध्यान में केन्द्रित करते ही इन्द्रियां निराश हो जाती हैं और आत्मब्रह्म प्रकाशित हो जाता है। मन सो बली न दूसरो, देख्यो इहिं संसार ।। तीन लोक में फिरत ही, जतन लागै बार ।।८।। मन दासन को दास है, मन भूपन को भूप ।। मन सब बातनि योग्य है, मन की कथा अनूप ।।९।। मन राजा की सैन सब, इन्द्रिय से उमराव ।। रात दिना दौरत फिरै, करै अनेक अन्याव ।।१०।। इन्द्रिय से उमराज जिहं, विषय देश विचरंत ।। भैया तिह मन भूपको, को जीतै विन संत ।।११।। मन चंचल मन चपल अति, मन बहु कर्म कमाय ।। मन जीते विन आत्मा, मुक्ति कही किम थाय ।।१२।। मन सो जोधा जगत में, और दूसरो नाहिं ।। ताहि पछारै सो सुभट, जीत लहै जग माहिं ।।१३।।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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