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________________ 249 रहस्यभावना के बाधक तत्त्व मन इन्द्रिय को भूप है, ताहि करै जो जेर ।। सो सुख पावे मुक्ति के, या में कछू न फेर।।१४।। जब मन मूंघो ध्यान में, इन्द्रिय भई निराश ।। तब इह आतम ब्रह्म ने, कीने निज परकाश ।।१५।।१४ बुधजन को संसार में उलझा हुआ मन बाबला-सा लगने लगा जो पर वस्तुओं को अपने अधिकार में करना चाहता है -“मनुआ बावला हो गया। (बुधजन विलास, पद १०४), इसी तरह वे अन्यत्र कह उठते हैं - हाँ मनाजी थारि गति बुरि छै दुखदाई हो। निज कारण में नेक न लागत पर सी प्रीति लगाई हो (वही, पद ६२)। और जब तक जाते हैं तो मन को उसकी अनन्त चतुष्टयी शक्ति का स्मरण कराकर कह उठते हैं - रेमन मेरा तू मेरौ कह्यौ मान-मानरे (वही, पद ६४)। द्यानतराय मन को सन्तोष धारण करने का उद्बोधन करते हैं और उसी को सबसे बड़ा धन मानते हैं - "बाहु सन्तोष सदा मन रे, जा सम और नहीं धन दें' (द्यानत पद संग्रह, पद ६१) इसलिए वे विषय भोगों को विष-बेल के समान मानकर जिन नाम स्मरण करने के लिए प्रेरित करते हैं। - "जिन नाम सुमर मन बावरें कहा इत उत भटकै। विषय प्रकट विष बेल हैं जिनमें जिन अटकै।" (वही, पद १०२) वीतराग का ध्यान ही उनकी दृष्टि में सदैव सुखकारी है - कर मन ! वीतराग को ध्यान ।...... द्यानत यह गुन नाम मालिका पहिर हिये सुखदान (वही, पद ६१)। इस प्रकार हमने देखा कि उक्त बाधक तत्त्वों के कारण साधक साधना पथ पर अग्रसर नहीं हो पाता। कभी वह सांसारिक विषय
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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