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________________ 247 रहस्यभावना के बाधक तत्त्व विषय उपभोग में हाथी गड्ढे में गिरता है और परतन्त्र बन कर अपार दुःख उठाता है। रसना इन्द्रिय के वश होकर मछली काटे में अपना कण्ठ फँसाती है और मर जाती है। गन्ध के लोभ में भ्रमर कमल पर मण्डराता है और उसी में बन्द होकर अपने प्राण गंवा देता है। सौन्दर्य के चक्कर में आकर पतंग दीपशिखा में अपनी आहुति दे डालता है। कर्णेन्द्रिय के लालच में संगीत पर मुग्ध होकर हरिणवन में व्याधों के हाथ अपने को सौप देता है। इसलिए रे मन, गुरु सीख को मान और इन सभी विषयों को छोड़ - रे मन तेरी को कुटेव यह, करन-विषय में धावै है । इन्हीं के वश तू अनादि तें, निज स्वरूप न लखावै है । पराधीन छिन-छिन समाकुल, दुरगति-विपत्ति चखावै है ।। फरस विषय के कारन वारन, गरत परत दुःख पावै है । रसना इन्द्रीवश झष जल में, कंटक कंठ छिदावै है ।। गंध-लोल पंकज मुद्रित में, अलि निज प्रान खपावै है । नयन-विषयवश दीप शिखा में, अंग पतंग जरावै है ।। करन विषयवश हिरन अरन में, खलकर प्रान लुभावै है । दौलततजइनको, जिनकोभज, यहगुरु-सीख सुनावै है ।। जैनेतर आचार्यों की तरह हिन्दी के जैनाचार्यों ने भी मन को करहा की उपमा दी है। ब्रह्मदीप का मन विषय रूप वेलि को चरने की ओर झुकता है पर उसे ऐसा करने के लिए कवि आग्रह करता है क्योंकि उसी के कारण उसे संसार में जन्म-मरण के चक्कर लगाना पड़े - “मन कर हा भव बनिमा चरइ, तदि विष वेल्लरी बहूत। तहं चरंतहं बहु दुखु पाइयउ, तब जानहु गौ मीत।" इस विषयवासना में शाश्वत् सुख की प्राप्ति नहीं होगी। रे मूढ़, इन मन रूपी हाथी हो विन्ध्य की ओर जाने से
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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