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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना प्रकार यह मदमत्त-मन-हाथी स्वच्छतापूर्वक विचरण कर रहा है। गुण रूप पथिक उसके पास एक भी नहीं आता। इसलिए जीव का कर्तव्य है कि वह उसे वैराग्य के स्तम्भ से बांध ले।
ज्ञान महावत डारि, सुमति संकलगहि खण्डै । गुरु अंकुश नहिं गिनै, ब्रह्मव्रत-विरख विहंडै ।। करि सिंघत सर न्हौन, केलि अध-रज सौं ठाने । करन चलनता धरै, कुमति करनी रति मानै ।। डोलत सुछन्द मदमत्त अति, गुण-पथिक न आवत उरै । वैराग्य खंभरौं बांध नर, मन-पतंग विचरत बुरै ।।४५
एक स्थान पर भूधरदास कवि ने मन को सुआ और जिनचरण को पिंजरा का रूपक देकर सुआ को पिंजरे में बैठने की सलाह दी और अनेक उपमाओं के साथ कर्मो से मुक्त हो जाने का आग्रह किया है - 'मेरे मन सुआ जिनपद-पीजरे वसि यार लाव न बार रे (भूधरविलास पद ५)। इसी तरह आगे कवि ने मन को मूरखपंथी कहकर हँस के सांग रूपक द्वारा उसे सांसारिक वासनाओं से विरक्त रहने का उपदेश दिया है और जिनचरण में बैठकर सद्गुरु के वचनरूपी नीतियों को चुनने की सलाह दी है- मन हँस हमारीले शिक्षा हितकारी।' (वही पद ३३)
मन की पहेली को कवि दौलतराम ने जब परखा तो वे कह उठे - रे मन, तेरी को कुटेव यह'। यह तेरी कैसी प्रवृत्ति है कि तू सदैव इन्द्रिय विषयों में लगा रहता है । इन्हीं के कारण तो अनादिकाल से तू निज स्वरूप को पहिचान नहीं सका और शाश्वत् सुख को प्राप्त नहीं कर सका। यह एकेन्द्रिय सुख पराधीन, क्षण-क्षयी दुःखदायी, दुर्गति और विपत्ति देने वाला है। क्या तू नहीं जानता कि स्पर्श इन्द्रिय के