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________________ 245 रहस्यभावना के बाधक तत्त्व तू व्यर्थ मे गर्व कर रहा है। तुम्हारे कारण ही तन्दुल मच्छ नरक में जाता है, जीव कोई पाप करता है तब उसका अनुमोदन करता है, इन्द्रियां तो शरीर के साथ ही बैठी रहती हैं पर तूं दिन रात इधर-उधर चक्कर लगाता रहता है। फलतः कर्म बंधते जाते हैं। इसलिए रे मन, राग द्वेष को दूर का परमात्मा में अपने को लगाओ। मनवत्तीसी में कवि ने मन के चार प्रकार बताये हैं - सत्य, असत्य अनुभय और उभय। प्रथम दो प्रकार संसार की ओर झुकते हैं और शेष दो प्रकार भवपार कराते हैं। मन यदि ब्रह्म में लग गया तो अपार सुख का कारण बना, पर यदि भ्रम में लग गया तो अपार दुःख का कारण सिद्ध होगा। इसलिए त्रिलोक में मनसे बली और कोई नहीं। मन दास भी है, भूप भी है। वह अति चंचल है। जीते जी आत्मज्ञान और मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। जिसने उसे पराजित कर दिया वही सही योद्धा है। जैसे ही मन ध्यान में केन्द्रित हो जाता है, इन्द्रियां निराश हो जाती हैं और आत्म ब्रह्म प्रगट हो जाता है । मन जैसा मूर्ख भी संसार में कोई दूसरा नहीं। वह सुख-सागर को छोड़कर विष के वन में बैठ जाता है । बड़े-बड़े महाराजाओं ने षट्खण्ड का राज्य किया पर वे मन को नहीं जती पाये इसलिए उन्हें नरक गति के दुःख भोगना पड़े। मन पर विजय न पाने के कारण ही इन्द्र भी आकर गर्भधारण करता है अतः भाव ही बन्ध का कारण है और भाव ही मुक्ति का।१४४ कवि भूधरदास ने मन को हाथी मानकर उसके अपर-ज्ञान को महावत के रूप में बैठाया पर उसे वह गिराकर, सुमति की सांकल तोड़कर भाग खड़ा हुआ। उसने गुरु का अंकुश नहीं माना, ब्रह्मचर्य रूप वृक्ष को उखाड़ दिया, अघरज से स्नान किया, कर्ण और इन्द्रियों की चपलता को धारण किया, कुमति रूप हथिनी से रमण किया। इस
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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