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________________ हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना १४० पर पदार्थों से ममत्व करने के बाद भैया भगवतीदास को जब ज्ञान का आभास होता है तो वह कह उठते हैं, रे मूढ मन, तूं चेतन को भूलकर इस परछाया में कहां भटक गये हो ? इसमें तेरा कोई स्वरूप नहीं। यह तो मात्र व्याधि का घर है। तेरा स्वरूप तो सदा सम्य्क गुण रहा है और शेष माया रूप भ्रम है। इस अनुपम रूप को देखते ही सिद्ध स्वरूप प्राप्त हो जायेगा।" अभी तक विषय सुखों में तू रमा रहा, पर यदि विचार करो तो उससे तुम्हारा भला नहीं होगा । तूं तो ऐसे ज्ञानियों-ध्यानियों का साथ कर जिनसे गति सुधर सके। उनसे यह मोह माया छूटेगी और तुम सिद्ध पद प्राप्त कर लोगे। चेतन कर्म चरित्र में 'चेतन मन भाई रे" का सम्बोधन कर कवि ने स्पष्ट किया है कि किस प्रकार मन माया, मिथ्या और शोक में लगा रहता है। इन तीनों शल्यों को मूलतः छोड़ना चाहिए। तदर्थ क्रोध, मान, माया और लोभदिक कषाय, मोह, अज्ञान विषयसुख आदि विकारों को तिलांजलि देकर अविनाशी ब्रह्म की आराधना करनी चाहिए । संसार में आने के बाद मरण अवश्यम्भावी है फिर धन यौवन, विषय रस आदिमें रे मूढ़, क्यों लीन है, तन और आयु दोनों क्षीण उसी तरह हो रहे हैं जैसे अंजुलि से जल झरता जाता हैं इसलिए जन्म-मरण के दुःखों को दूर करने का प्रयत्न करो।' १४१ १४२ 244 पंचेन्द्रिय संवाद में मन के दोनों पक्षों को कवि ने सुघडता से रखा है। मन अपने आपको सभी का सरदार कहता है । वह कहता है कि मन से ही कर्म क्षीण होता है, करुणा से पुण्य होता है और आत्मतत्त्व जाना जाता है । इसलिए मन इन्द्रियों का राजा है और इन्द्रियां मन की दास हैं। तब मुनिराज ने उसका दूसरा पक्ष उसी के समक्ष रखा-रे मन,
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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