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________________ 243 रहस्यभावना के बाधक तत्त्व जब चेतन मालिम जगै, लखै विपाक नीम। डारै समता श्रृंखला, थकै भ्रमर की धूम ।।७।।१३३ बनारसीदास का मन इधर-उधर बहुत भटकता रहा। इसलिए वे कहते हैं कि रे मन, सदा सन्तोष धारण किया कर। सब दुःखादिक दोष उससे नष्ट हो जाते हैं। मन भ्रम अथवा दुविधा का घर है। कवि को इसकी बड़ी चिन्ता है कि इस मन की यह दुविधा कब मिटेगी और कब वह निजनाथ निरंजन का स्मरण करेगा, कब वह अक्षयपद की ओर लक्ष्य बनायेगा, कब वह तन की ममता छोड़कर समता ग्रहण कर शुभ ध्यान की ओर मुड़ेगा, सद्गुरु के वचन उसके घट के अन्दर निरन्तर कब रहेंगे, कब परमार्थ सुख को प्राप्त करेगा, कब धन की तृष्णा दूर होगी, कब घर को छोड़कर एकाकी वनवासी होगा। अपने मन की ऐसी दशा प्राप्त करने के लिए कवि आतुर होता हुआ दिखाई देता है। २५ जगजीवन का मन धर्म के मर्म को नहीं पहचान सका। उसके मन ने दूसरों की हिंसा कर धन का अपहरण करता चाहा, पर स्त्री से रति करनी चाही, असत्य भाषण कर बुरा करना चाहा, परिग्रह का भार लेना चाहा, तृष्णा के कारण संकल्प विकल्पमय परिणाम किये, रौद्रभाव धारण किये, क्रोध, मान, माया लोभादिक कषाय और अष्टपद के वशीभूत होकर मिथ्यात्व को नहीं छोड़ा, पापमयी क्रियायें कर सुख-सम्पत्ति चाही, पर मिली नहीं। जगतराम का मन भी बस में नहीं होता। वे किसी तरह से उसे खींचकर भगवच्चरण में लगाते हैं। पर क्षण भर बाद पुनः वह वहाँ से भाग जाता है। असाता कर्मो ने उसे खूब झकझोरा है इसलिए वह शिथिल और मुरझा-सा गया है। साता कर्मोका उदय आते ही वह हर्षित हो जाता है। रूपचन्द अपने मन की उल्टी रीति की और संकेत करते हैं कि जहां दुःख मिलता है वहीं वह दौड़ता है इसलिए वे उसे सामने अपनी हार मान लेते हैं।१२८
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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