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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना संसारी मन का यह कुछ स्वभाव सा है कि जिस और उसे जाने के लिए रोका जाता है उसी और वह दौड़ता है। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है। पं. रूपचन्द्र का अनुभव है कि उनका मन सदैव विपरीत रीति चलता है । जिन सांसारिक पदार्थो से उसने कष्ट पाया है उन्हीं में प्रीति करता है। पर पदार्थो में आसक्त होकर अनैतिक आचरण भी करता है। कवि उसे वश में नहीं कर पाता और हारकर बैठ जाता है।३२
कलाकार बनारसीदास ने मन को जहाज का रूपक देकर उसके स्वभाव की ओर अधिक स्पष्ट कर दिया है। जिस प्रकार किसी व्यक्ति को समुद्र पार करने के लिए एक ही मार्ग रहता है जहाज, उसी तरह भंव (समुद्र) से मुक्त होने के लिए सम्यग्ज्ञानी को मन रूपी जहाज का आश्रय लेना पड़ता है। वह मन-घट में स्वयं में विद्यमान रहता है, पर अज्ञानी उसे बाहर खोजता है, यह आश्चर्य का विषय है। कर्मरूपी समुद्र में राग-द्वेषादि विभाव का जल है, उसमें विषय की तरंगें उठती रहती हैं, तृष्णा की प्रबल बड़वाग्नि और ममता का शब्द फैला रहता है। भ्रमरूपी भंवर है जिसमें मन रूपी जहाज पवन के जोर से चारों दिशाओं में चक्कर लगाता, गिरता खिरता, डूबता, उतराता है। जब चेतन रूप स्वामी जागता है और उसका परिणाम समझता है तो वह समता रूप श्रृंखला फैकता है । फलतः भंवर का प्रकोप कम हो जाता है। कर्म समुद्र विभाव जल, विषयकषाय तरंग।
बडवाग्नि तृष्ण प्रबल, मता धुनि सरबंग।।५।। भरम भंवर तामें फिरै, मनजहाज चहुँ और।
गिरै खिरै बूडे तिरै, उदय पवन के जोर ।।६।।