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________________ 241 रहस्यभावना के बाधक तत्त्व उद्घाटित किया है और शिथिलाचार की भर्त्सना की है।३२९ किशनसिंह ने बाह्यक्रियाओं को व्यर्थ बताकर अन्तरंग शुद्धि पर यह कहकर बल दिया - जिन आपकू जीया नहीं, तन मन कू षोज्या नहीं । मन मैल कुं धोया नहीं, अंगुल किया तो क्या हुआ ।। लालच करै दिल दाम की, षासति करै बाद काम की। हिरदै नहीं सुद्ध राम की, हरि हरि कह्या तो क्या हुआ ।। कूता हुआ धन मालदा, धंध करै जंजालदा । हिरदा हुआ च्यमालदा, कासी गया तो क्या हुआ ।।१३० बाह्य क्रियाओं के करने से जीव रागादिक वासनाओं में लिप्त रहता है और अपना आत्मकल्याण नहीं कर पाता इसलिए ऐसे बाह्याडम्बरों का निषेध जैन साधकों और कवियों ने जैनेतर सन्तों के समान ही किया है। दौलतराम ने देह आश्रित बाह्यक्रियाओं को मोक्ष प्राप्ति की विफलता का कारण माना है । इसलिए वे कहते हैं - आपा नहिं जाना तूने कैसा ज्ञानधारी रे । देहाश्रित करि क्रिया आपको मानत शिव-मग-चारी रे। निज-निर्वेद विनघोर परीसह, विफल कही जिन सारीरे।३१ ८. मन की चंचलता रहस्यभावना की साधना का केन्द्र मन है। उसकी गति चूंकि तीव्रतम होती है इसलिए उसे वश में करना साधक के लिए अत्यावश्यक हो जाता है । मन का शैथिल्य साधना को डगमगाने में पर्याप्त होता है। शायद यही कारण है कि हर साधना में मन को वश में करने की बात कही है । जैन योग साधना भी इसमें पीछे नहीं रही।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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