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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना केऊ फिरै कानफटा, केऊ शीस धरै जटा,
के लिए भस्मवटा भूले भटकत है। केऊ तज जांहि अटा, केऊ घेरे चेरी चटा,
केऊ पढ़े पट केऊ धूम गटकत है।। केऊ तत किये लटा, केऊ महादीसें कटा,
केऊ तरतटा केऊ रसा लटकत है। भ्रम भावतें न हटा हिये काम नहीं घटा,
विषै सुख रटा साथ हाथ पटकत है ।।१०।० कान फटाकर योगी बन जाते हैं, कंधे पर झोली लटका लेते हैं, पर तृष्णा का विनाश नहीं करते तो ऐसे ढोंगी योगी बनने का कोई फल नहीं। यति हुआ पर इन्द्रियों पर विजय नहीं पायी, पांचों भूतों को मारा नहीं, जीव अजीव को समझा नहीं, वेष लेकर भी पराजित हुआ, वेद पढ़कर ब्राह्मण कहलाये पर ब्रह्मदशा का ज्ञान नहीं। आत्म तत्त्व को समझा नहीं तो उसका क्या तात्पर्य ? जंगल जाने, भस्म चढ़ाने और जटा धारण करने से कोई अर्थ नहीं, जब तक पर पदार्थो से आशा न तोड़ी जाय। पाण्डे हेमराज ने भी इसी तरह कहा कि शुद्धात्मा का अनुभव किये बिना तीर्थ स्नान, शिर मुंडन, तप-तापन आदि सब कुछ व्यर्थ है - "शुद्धातम अनुभी बिना क्यों पावै सिवषेत'।१२५ जिनहर्ष ने ज्ञान के बिना मुण्डन तप आदि को मात्र कष्ट उठाना बताया है। उन क्रियाओं से मोक्ष को कोई सम्बन्ध नहीं - "कष्ट करे जसराज बहुत पे ग्यान बिना शिव पंथ न पावें।१२७ शिरोमणिदास ने “नहीं दिगम्बर नहीं वगत धर, ये जती नहीं भव भ्रमें अपार''१२८ कहकर और पं. दौलतराम ने “मूंड मुंडाये कहां तत्त्व नहि पावै जौ लौ लिखकर, भूधरदास ने “अन्तर उज्जवल करना रे भाई' कहकर इसी तथ्य को