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रहस्यभावना के बाधक तत्त्व
नग चिन्तामणि डारिके पत्थर जोउ, ग्रहैं नर मूरचा सोई । सुन्दर पाट पटम्बर अम्बर छोरिकैं ओंढणलेत है उोई ।। कामदूधा धरतें जूं विडार कै छेरि गर्दै मतिमंद जि कोई । धर्म को छोर अधर्म्म को जसराज उणें निज बुद्धि विगोई । । २ । । *
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संसारी जीव इन क्रोधादि कषायों के वशीभूत होकर साधना के विमल पथ पर लीन नहीं हो पाता । कोध, मान, माया, लोभादि विकारों से ग्रस्त होकर वह संसरण को और भी आगे बढ़ा लेता है । उसे शाश्वत् सुख की प्राप्ति में सर्वाधिक बाधक तत्त्व ये कषाय हैं जो आत्मा को संसार-सागर में भटकाते रहते हैं ।
६. मोह
अष्ट कर्मों में प्रबलतम कर्म है मोहनीय, उसी के कारण जीव संसार में भटकता रहता है। धन की तृषा- तुप्ति और वनिता की प्रीति में वह धर्म से विमुख हो जाता है। अपने इन्द्रिय सुख के लिए सभी तरह के अच्छे-बुरे साधन अपनाता है। ऐसे व्यक्ति की मोह - निद्रा इतनी तीव्र होती है कि जगाने पर भी वह जागता नहीं ।" वह तो पर पदार्थो में आसक्त रहता है । उसे स्व-पर विवेक नहीं रहता। मिथ्यात्ववश मेरामेरा ही रट लगाता रहता है।" यह मोह चतुर्गति के दुःखों का कारण होता है।" जीव परकीय वस्तु पर मुग्ध होकर स्वकीय वस्तु को छोड़ बैठता है।" मोह का प्रबल प्रताप इतना तेज रहता है कि जीव उससे सदैव संतप्त बना रहता है। सुर नर इन्द्र सभी मोहीजन अस्त्र के बिना भी अस्त्रवान हैं हरि, हर, ब्रह्मा आदिक महापुरुषों ने उसे छोड दिया पर जिन्होंने नहीं छोडा वे जीवन भी विलाप करते रहते हैं। इसलिए पं. रूपचन्द्र भावविभोर होकर बड़े आग्रह से जीव को सलाह देते हैं कि इस मोह को छोड़ो। इस पाप से दुःखी क्यों बने हो । '
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