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________________ 234 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना जिस प्रकार पवन के झकोरों से जल में तरंगें उठती हैं वैसे ही परिग्रह और मोह के कारण मन चंचल हो उठता है। जैसे कोई सर्प का डंसा व्यक्ति अपनी रुचि से नीम खाता है वेसे ही यह संसार प्राणी ममता-मोह के वशीभूत होकर इन्द्रियों के विषय सुख में लगा है। अननतकाल से इसी महामोह की नींद के कारण चर्तुगति में परिभ्रमण कर रहा है।" मोह के कारण ही व्यक्ति एक वस्तु के अनेक नाम निर्धारित कर लेता है। उनके अनेकत्व को एकत्व में देखता है। कल्पित नाम को भी मोहवश तीनों अवस्थाओं में एकसा और यथार्थ मानता है। पर यह भ्रम है। उस भ्रम पर ही विचार क्यों नहीं कर लेता ? यदि उस पर विचार कर ले तो इस संसार से पार हो जायेगा। मोह से विकल होने पर जीव चेतन को भूल जाता है और देह में राग करने लगता है। सारा परिवार स्वार्थ से प्रेरित होता है। जन्म और मरण करने वाला प्राणी स्वयं अकेला रहता है पर वह सारे ससार का मोह बटोरे चलता है। वह सोचता है, यदि विभूति होती तो दान देता। और भी उसके मन में प्रपंच आते हैं जिनके कारण संसार में भ्रमण करता रहता है। वह बन्ध का कारण जुटाता है, पर मोक्ष प्राप्ति का उपाय नहीं जानता। यदि जान जाता तो भव-भ्रमण सहज ही दूर हो जाता। जीव के लिए उसका मोह सर्वाधिक महादुःखदाई होता है। अनादिकाल से आत्मा की अनन्त शक्ति को उसने छिपा दिया था। क्रम-क्रम से उसने नरभव प्राप्त किया, फिर भी मोह को नहीं छोड़ा। जिस परिवार को अपना मानकर पाला-पोसा, वह भी छोड़कर चला गया, जन्म-मरण के दुःख भी पाये। इसका मूल कारण मोह है जिसका त्याग किये बिना परमपद प्राप्त नहीं हो सकता। मोही आत्मा को परदेशी मानकर कवि कह उठा- इस परदेशी का क्या विश्वास। यह न
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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