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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना रूपसमुद्र को सोखने के लिए कुम्भ नद, कोपादि को उत्पन्न करने के लिए अरणि, मोट के लिए विषवृक्ष, महादृढ़कच्छ, विवेक के लिए राहु और कलह के लिए केलिमौन है।“बनारसीदास ने सभी पापों का मूल लोभ को, दुःख का मूल स्रेह को और व्याधि का मूल अजीर्ण को बताया है। बुधजन का मन लोभ के कारण कभी तृप्त ही नहीं हो पाता। जितना भोग मिलता है उतनी ही उसकी तृष्णा बढ़ती जाती है।" इसलिए कभी उसे सुख भी नहीं मिलता।" लोभ की प्रवृत्ति आशाजन्य होती है भूधरदास ने आशा को नदी मानकर उसका सुन्दर वर्णन किया है। आशारूप नदी मोह रूपी ऊँचे पर्वत से निकलकर, सारे भूतल पर फैल जाती है। उसमें विविध मनोरथ का जल, तृष्णा की तरंगे, भ्रम का भंवर, राग का मगर, चिन्ता का तट है जो धर्म-वृक्ष को ढहाते चले जाते हैं -
मोह से महान ऊँचे पर्वत सौ ढर आई, तिहूँजग भूतल में या ही विसतरी है । विविध मनोरथ मैं भूरि जलभरी बहै, मिसना तरंगनि सौ आकुलता धरी है ।। परै भ्रम भौंर जहाँ रागसो मगर तहाँ, चिन्ता तटतुंग धर्मवृच्छढाय ढरी है । ऐसी यह आशा नाम नदी है अगाध ताको, धन्यसाधु धीरज जहाज चढि तरी है ।
लोभ से मुनिगण भी प्रभवित हुए बिना नहीं रहते, उसका लोभ शिव-रमणी से रमण करने का बना रहता है। ऐसा लोभी व्यक्ति नग चिन्तामणी को छोड़कर पत्थर को बटोरता, सुन्दर वस्त्र छोड़कर चिथड़े इकट्ठे करता तथा कामधेनु को छोड़कर बकरी ग्रहण करता है।