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________________ रहस्यभावना के बाधक तत्त्व 231 में तुम कहाँ पहुँचोगे। बड़े-बड़े भूप आये और गये तब तूं क्यों गर्व करता है ? माया चेतन के शुभ भावों को प्रच्छन्न कर देती है। वह कुशलजनों के लिए बांझ और सत्यहारिणी है। मोह का कुंजर उसमें निवास करता है, वह अपयश की खान, पाप-सन्तापदायिनी, अविश्वास और विलाप की गृहिणी है। बनारसीदास ने माया और छाया को एक माना है क्योंकि ये दोनों क्षण-क्षण में घटती-बढ़ती रहती हैं। उन्होंने माया का बोझ रखने वाले की अपेक्षा खर अथवारीछ को अधिक अच्छा माना। भूधरदास ने उसे ठगनी कहा है - सुनि ठगनी माया, तै सब जग इग खाया । टुक विश्वास किया जिन तेरा सो मूरख पछताया ।।सुनि।। आभा तनक दिखाय विज्नु ज्यों मूढ़मती ललचाया । करि मद अंध धर्महर लीनों, अन्त नरक पहुंचाया ।।सुनि।।२४।। आनन्दघन भीमाया को महाठगनी मानते हैं और उससे विलग रहने का उपदेश देते हैं - अवधू ऐसा ज्ञान विचारी, वामें कोण पुरुष कोण नारी। बम्मन के घर न्हासी धोती, जोगी के घर चेली।। कलमा पढ़ भई रे तुरकड़ी, तो आप ही आप अकेली। ससुरो हमारो वालो भोलो, सासू बोला कुंवारी।। पियु जो हमारी प्होदै पारणिये, तो मैं हूं झुलावनहारी। नहीं हूँ परणी, नहीं हूँ कुँवारी, पुत्र जणावन हारी।। लोभ में भी सुख का लेश नहीं रहता। लोभी का मन सदैव मलीन रहता है। वह ज्ञान-रवि रोकने के लिए धराधर, सुकृति
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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