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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना उन दिनों को भूल गये जब माता के उदर में नव माह तक उल्टे लटके रहे, आज यौवन के रस में उन्मत्त हो गये हो। दिन बीतेंगे, यौवन बीतेगा, वृद्धावस्था आयेगी, और यम के चिन्ह देखकर तुम दुःखी होगे।" अरे चेतन, तुमन आत्मस्वभाव को भूलकर इन्द्रिय सुख में मग्न हो गये, क्रोधादि कषायों के वशीभूत होकर दर-दर भटक गये, कभी तुमने भामिनी के साथ काम क्रीड़ा की, कभी लक्ष्मी को सब कुछ मानकर अनीतिपूर्वक द्रव्यार्जन किया और कभी बली बनकर निर्बलों को प्रताड़ित किया। अष्ट मदों से तुम खूब खेले और धन-धान्य, पुत्रादि इच्छाओं की पूर्ति में लगे रहे। पर ये सब सुख मात्र सुखाभास हैं, क्षणिक हैं, तुम्हारा साथ देने वाले नहीं। नारी विष की वेल है, दुःखदाई है। इनका संग छोड़ देना ही श्रेयस्कर है। ५. कषाय
इसी प्रकार धन-सम्पत्ति भी जीव को दुर्गति में ले जाने वाली है। वह चपला-सी चंचल है, दावानल-सी तृष्णा को बढ़ाने वाली है, कुलटा-सी डोलती है, बन्धु विरोधिनी, छलकारिणी और कषायवर्धिणी है। क्रोधादिक कषाय भी इसी तरह चेतन को दुर्गति में ले जाने वाले होते हैं। क्रोध, भ्रम, भय, चिन्ता आदि को बढ़ाने वाला, सर्प के समान भयंकर, विषवृक्ष के समान जीवन हरण करने वाला, कलहकारी, यशहारी और धर्म मार्ग विध्वंसक है।
माया कुमति-गुफा है, जहाँ वध-बुद्धि की धूमरेखा और कोप का दावानल उठता रहता है। मानी मदांध गज के समान रहता है। इसलिए भवगतीदास ने 'छांडि दे अभियान जियरे छांडि दे अभिमान।' तूं किसका है और तेरा कौन है ? सभी इस जगत में मेहमान बन कर आये हैं, कोई वस्तु स्थिर नहीं। कुछ नहीं कहा जा सकता कि क्षण भर