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रहस्यभावना के बाधक तत्त्व
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राग-द्वेषादि युक्त देव कुदेव हैं और हिंसादि का उपदेश देने वाला धर्म कुधर्म है। इनका सेवन करने वाला व्यक्ति संसार में स्वयं डूबता है और दूसरे को भी डुबाता है । वे एकान्तवाद का कथन करते हैं तथा भेदविज्ञान न होने से कषाय के वशीभूत होकर शरीर को क्षीण करने वाली अनेक प्रकार की हठयोगादिक क्रियायें करते हैं।
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मिथ्यादृष्टि जीव पंचेन्द्रियों के विषय सुख में निजसुख भूल जाता है। जैसे कल्पवृक्ष को जड़ से उखाड़कर धतूरे को रोप दिया जाय, गजराज को बेचकर गधे को खरीद लिया जाय, चिन्तामणि रत्न को फेंककर कांच ग्रहण किया जाय, वैसे ही धर्म को भूलकर विषयवासना को सुख माना जाय तो इससे अधिक मूर्खता और क्या हो सकती है ?" ये इन्द्रियां जीव को कुपथ में ले जाने वाली हैं, तुरग-सी वक्रगति वाली हैं, विवेकहारिणी उरग जैसी भयंकर, पुण्य रूप वृक्ष को कुठार, कुगतिप्रदायनी विभवविनाशिनी, अनीतिकारिणी और दुराचारवर्धिणी हैं विषयाभिलाषी जीव की प्रवृत्ति कैसी होती है, इसका उदाहरण देखिये :
धर्मतरुभंजन कौ महामत्त कुंजर से, आपदा भण्डार के भरन को करोरी है । सत्यशील रोकवे को पौढ़ परदार जेसे, दुर्गति के मारग चलायवे कौ घोरी है । कुमरी के अधिकारी कुनैपंथ के विहारी, भद्रभाव ईंधन जरायवे कौ होरी है । मृषा के सहाई दुरभावना के भाई ऐसे, विषयाभिलाषी जीव अघ के अज्ञोरी है ।। "
भैया भगवती चेतन को उद्बोधित करते हुए कहते हैं कि तुम