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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
तो भुला दिया और पर रूप को स्वीकार कर लिया। इतना ही नहीं, तुमने इन्द्रिय विषयों का ईंधन जलाकर इच्छाओं को बढ़ा दिया। अब तो एक यही मार्ग है कि तुम राग-द्वेष को छोड़कर मोक्ष के रास्ते को पकड़ लो :
हे नर, भ्रम- नींद क्यों न छांड़त दुःखदाई। सोवत चिरकाल सोंज आपनी ठगाई । मूरख अधकर्म कहा, भेद नहिं मर्म लहा । लागै दुःख ज्वाला की न देह कै तताई ।। जम के रव बाजते, सुमैरव अति गाजते । अनेक प्रान त्यागते, सुनै कहा न भाई ।।
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जैन रहस्यवाद में मिथ्यात्व के तीन भेद होते हैं - मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र । ये तीनों भेद गृहीत और अगृहीत रूप होते हैं। गृहीत का अर्थ है बाह्यकारणों से ग्रहण करना और अगृहीत का तात्पर्य है निसर्गज, अनादिकाल से होना। इन्हीं के कारण संसारी भव-भ्रमण करता रहता हैं जीवादि सप्त तत्त्वों के स्वरूप पर यथार्थ रूप से श्रद्धा न करना अगृहीत मिथ्यादर्शन है और उससे उत्पन्न होने वाला ज्ञान अगृहीत मिथ्याज्ञान है। पंचेन्द्रियों के विषय भोगों का सेवन करना अगृहीत मिथ्याचारित्र है। इनके कारण जीव अपने आपको सुखी - दुःखी, धनी, निर्धनी, सबल, निर्बल आदि रूप से मानता है, शरीर के उत्पन्न होने पर अपनी उत्पत्ति और शरीर के नष्ट होने पर अपना नाश समझता है, रागद्वेषादि कारणों से जुटाता है और आत्मशक्ति को खोकर इच्छाओं का अम्बार लगाता है। गृहीत मिथ्यादर्शन
जीव कुगुरु, कुदेव और कुधर्म का सेवन करता है। कुगुरु का तात्पर्य है वह व्यक्ति जो मिथ्यात्वादि अन्तरंग परिग्रह और पीतवस्त्रादि बाह्य परिग्रह को धारण करता हो, अपने को मुनि मानता हो, मनाता हो ।