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________________ रहस्यभावना के बाधक तत्त्व रुचा । इस अपवित्र, अचेतन देहे में तुम कैसे मोहासक्त हो गये ? अपना परम अतीन्द्रिय शाश्वत सुख छोड़कर इन्द्रियों की विषय-वासना में तन्मय हो रहे हो। तुम्हारा चैतन्य नाम जड़ क्यों हो गया और तुमने अपना अनन्त ज्ञानादिक गुणों से युक्त अपना नाम क्यों भुला दिया ? त्रिलोक का स्वतन्त्र राज्य छोड़कर इस परतन्त्र को स्वीकारते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती। मिथ्यात्व को दूर करने के बाद ही तुम कर्ममल से मुक्त हो सकोगे और परमात्मा कहला सकोगे। तभी तुम अनन्त सुख को प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त कर सकोगे । 227 "जीव ! तू मूढपना कित पायो । सब जग स्वारथ को चाहत है, स्वारथ तोहि न भायो । अशुचि अचेत दुष्ट तन मांही, कहा जान विरमायो । परम अतिन्द्री निज सुख हरि कै, विषय-रोग लपटायो ।। चेतन नाम भयो जड़ काहे, अपनी नाम गमायो । तीन लोक को राज छांड़िकै, भीख मांग न लजायओ ।। मूढपना मिथ्या जब छूटे, तब तू सन्त कहायो । 'द्यानत' सुख अनन्त शिव विलसो, यों सद्गुरु बतलायो । । ७१ दौलतराम इस मिथ्या भ्रम - निन्दा को देखकर अत्यन्त दुःखी हुए और कह उठे - रेनर, इस दुःखदाई भ्रम निद्रा को छोड़ते क्यों नहीं हो ? चिरकाल से उसी में पड़े हुए हो, पर यह नहीं सोचते कि इसमें तुम्हारा क्या कितना घाटा हुआ है ? मूर्ख व्यक्ति पाप-पुण्य कार्यो में कोई भेद नहीं करता और न उसका मर्म ही समझता है। जब दुःखों की ज्वाला में झुलसने लगता है तब उसे कष्ट होता है । इतने पर भी निद्रा भंग नहीं होती। कवि पुनः अन्य प्रकार से कहता है कि तुम्हारे सिर पर यमराज के भयंकर बाजे बज रहे हैं, अनेक व्यक्ति प्रतिदिन प्राण त्यागते है। क्या तुम्हें यह समाचार सुनाई नहीं दिया ? तुमने अपना रूप
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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