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________________ 226 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना यह अशुद्धता बनी हुई है। मोक्षपथ रुका हुआ है, संकट सहे गये हैं। फिर भी चेतन उससे मुक्त नहीं हो रहा । मोह के दूर होने से राग-द्वेष दूर होंगे, कर्म की उपाधि नष्ट होगी और चिदानन्द अपने शुद्ध रूप को प्राप्त कर सकेगा। अन्यथा मिथ्यात्व के कारण ही वह चतुर्गति में भ्रमण करता रहेगा । जब तक भ्रम है तब तक कर्मो से मुक्ति नहीं मिल सकती और न ही सम्यग्ज्ञान हो सम्यग्ज्ञान हो सकता है। पर मिथ्याज्ञान के कारण स्वपरविवेक जाग्रत नहीं हो पाता। पूर्वावस्था में तो विषय भोगों में रमण करता है पर जब वृद्धावस्था आती है तो रुदन करता है तो रुदन करता है। क्रोधादिक कषायों के वशीभूत होकर निगोद का बन्ध करता है। सारे जीवन भर गांठ की कमाई खाता है, एक कौडी की भी कमाई नहीं करता। इससे अधिक मूढ और कौन हो सकता है ?"वह चेतन अचेतन की हिंसा करता रहा, भक्ष्य अभक्ष्य खाता रहा, सत्य को असत्य और असत्य को सत्य मानता रहा, वस्तु के स्वभाव को नहीं पहचाना, मात्र बाह्य क्रियाकाण्ड को धर्म मानता रहा तथा कुगुरु, कुदेव और कुधर्म का सेवन करता रहा। मोह के भ्रम से राग-द्वेष में डूबा रहा।"मोह के परिणाम स्वरूप जीव में राग-द्वेष उत्पन्न होता है। राग-द्वेष उसका मूल स्वभाव नहीं। रागादिक के रंग से स्फटिक मणि जैसा विशुद्ध चेतन भी रंगीला दिखाई देने लगता है। यह रंगीला भाव मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व से ही वह काया माया को स्थिर मानकर उसमें आसक्त रहता है ।“ लोभी बनकर इच्छाओं की दावानल में झुलसता रहता है । जीव और पुद्गल के भेद को न समझकर अज्ञानी बना रहता है। कविवर द्यानतराय मिथ्याज्ञानी की स्थिति देखकर पूछ उठते हैं कि हे आत्मन्, यह मिथ्यात्व तुमने कहां से प्राप्त किया ? सारा संसार स्वार्थ की ओर निहारता है पर तुम्हें अपना स्वार्थ स्वकल्याण नहीं
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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