________________
223
रहस्यभावना के बाधक तत्त्व दुहूँ और दीवटि संवारि पट दूरि कीजै, सकल सभा के लोग देखें दृष्टि धरि कै। तैसे ज्ञानसागर मिथ्याति ग्रंथि मेटि करि, उमग्यो प्रगट रह्यौ तिहूँलोक भरिकै। ऐसो उपदेश सुनि चाहिये जगत जीत; सुद्धता संभारे जंजाल सौ निसरि के।
पुण्य-पाप दोनों संसार भ्रमण के बीज है। इन्हीं के कारण इन्द्रियों को सुख-दुःख मिलता है। भैया भगवतीदास ने इसलिए इन दोनों को त्यागने का उपदेश दिया है। अजरामर पद प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है। बनारसीदास ने इसे नाटक समयसार के पुण्यपाप एकत्वद्वार में इस तत्त्व पर विशद प्रकाश डाला है। उन्होंने कहा है - जैसे किसी चांडालनी के दो पुत्र हुए, उनमें से उसने एक पुत्र ब्राह्मण को दिया और एक अपने घर में रखा। जो ब्राह्मण को दिया वह ब्राह्मण कहलाया और मद्य-मांस भक्षण का त्यागी हुआ। जो घर में रहा वह चाण्डाल कहलाया तथा मद्य-मांसभक्षी हुआ। उसी प्रकार एक वेदनीय कर्म के पाप और पुण्य भिन्न-भिन्न नाम वाले दो पुत्र हैं, वे दोनों संसार में भटकाते हैं। और दोनों बंधपरम्परा को बढ़ाते हैं। इससे ज्ञानी लोग दोनों की ही अभिलाषा नहीं करते। जैसे काहू चंडाली जुगल पुत्र जने तिनि,
बांमन कहायी तिनि मद्य मांस त्याग कीनौ, चांडाल कहायो तिनि मद्य-माँस चाख्यौ कै।।
तैसे एक वेदनी करम के जुगल पुत्र, एक पाप एक पुन्न नाम भिन्न भाख्यौ कै।
दूहं मोहि दौर धूप दोऊ कर्मबन्धरूप, यातें ग्यानवंत नहि कोउ अभिलाख्यौ कै।।५५
बनारसीदास ने नाटक समय-सार में एक रूपक के माध्यम से