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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना मिथ्यात्व को समझाने का प्रयत्न किया है। शरीररूपी महल में कर्मरूपी भारी पलंग है, माया की शय्या सजी हुई है, संकल्प विकल्प की चादर तनी हुई है। चेतना अपने स्वरूप को भूला हुआ निद्रा की गोद में पड़ा हुआ है, मोह के झकोरों से नेत्रों के पलक ढंक रहे हैं, कर्मोदय से तीव्र घुरकने की आवाज हो रही है, विषय सुख की खेज में भटकता स्वप्न है, ऐसी अज्ञानावस्था में आत्मा सदा मग्न होकर मिथ्यात्व में भटकता फिरता है, परन्तु अपने आत्मस्वरूप को नहीं देखता -
काया चित्रसारी में करम परजंक भारी, माया की संवारी सेज चादरि कल्पना । सैन करै चेतन अचेतना नींद लिये, मोह की मरोट यहै लोचन को ढपना ।। उदै बल जौर यहै श्वासको सबद घोर, विषै-सुख कारज की दौर यहै अपना । ऐसी मूढ दसा मैं मगन रहै तिहुकाल, घावै भ्रम जाल मैं न पावै रूप अपना ।।
मिथ्याज्ञानी तत्त्व को समझ नहीं पाता। उसका ज्ञान वैसा ही दबा रहता है जैसा मेघघटा में चन्द्र। वह सद्गुरु का उपदेश नहीं सुनता, तीनों अवस्थाओ में निर्द्वन्द होकर घूमता रहता है। मणि और कांच में उसे कोई अन्तर नहीं दिखता । सत्य और असत्य का उसे कोई भेदज्ञान भी नहीं है । तथ्य तो यह है कि मणि की परख जौहरी ही कर सकता है। सत्य का ज्ञान ज्ञानी को ही हो सकता है। कलाकार बनारसीदास ने इसी बात को कितने मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है ।
रूप की न झांक हिये करम को डांक पिये, ज्ञान दबि रहयो मिरगांक जैसे धन में। लोचन की ढांक सो न मानें सद्गुरु हांक, डोले मूद रंग सो निशंक निहूंपन में ।।"