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________________ 222 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना आदि उत्पन्न होते हैं और पुण्य से संसार बढ़ाने वाले विषयभोगों की वृद्धि, आर्त्त-रौद्रादि ध्यान उत्पन्न होते हैं। मिथ्यात्वी इन दोनों को समान मानता है, कम्पन रोग से भय करता है और ऐंठन से प्रीति। एक में उद्वेग होता है और दूसरे में उपशान्ति। एक में कच्छप जैसा संकोच, तुरग जैसी वक्रचाल और अन्धकार जैसा समग्र रहता है और दूसरे में वकरकूद-सी उमंग, जकरबन्द जैसी चाल तथा मकरचांदनी जैसा प्रकाश होता है। तम और उद्योत ये दोनों पुद्गल की पर्याय हैं छर मिथ्याज्ञान वश उनमें भेदविज्ञान पैदा नहीं होता इसलिए संसार में भटकते रहते हैं। दोनों दशायें विनष्ट होने वाली हैं। कोई पर्वत से गिरकर मरता है तो कोई कूप से। मरण दोनों का एक है, रूप विविध भले ही हो। दोनों के माता-पिता क्रमशः वेदनीय और मोहनीय हैं। उन्हीं से वे बन्धे हुए हैं। श्रृंखला एक ही है चाहे वह लोहे की हो अथवा स्वर्ण की हो। जिसकी चित्त दशा जैसी होगी उसकी दृष्टि वैसी ही होगी। इसलिए ज्ञानी संसार चक्र को समाप्त कर देता है पर मिथ्यात्वी उसे और भी बढ़ा लेता है।५२ ___ नाटक समयसार बनारसीदास की श्रेष्ठतम रचना है। इसमें कवि आत्मख्याति टीका के कलशों से दृष्टान्तों, उपमाओं और रूपकों द्वारा अपने कलशों को ऐसा संजोया है कि उनसे रसानुभूति हुए बिना नहीं रहती। उसमें सप्त तत्त्व अभिनेता हैं, जीव नायक है और अजीव प्रतिनायक है। आत्मा के स्वभाव और विभाव को नाटक के ढंग पर प्रदर्शित करने के कारण इसे नाटक कहा गया है। इसी तरह बनारसीदास का ही बनारसी विलास भी उत्तम रचनाओं का संग्रह है (ल. सं. १७००)। आत्मा किस प्रकार मिथ्यात्व के पर्दे से ढकी है, इसका रूपक के माध्यम से वर्णन करता हुआ कवि लिखता है - जैसे कोऊ पातुर बनाय वस्त्र आभरन, आवलि अखारे निसि आठौ पट करिकै,
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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