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रहस्यभावना के बाधक तत्त्व जैन-साधना के क्षेत्र में मिथ्यात्व उस दृष्टि को कहा गया है जिसमें विशुद्धता न हो, पर पदार्थो में आसक्ति हो, एकान्तवादी का पक्षपाती हो, भेदविज्ञान जाग्रत न हुआ हो, कर्म के झकौरों से संसार में वैसा ही डोलता हो जैसे बघरूड़े में पड़ा पत्ता, क्रोधादि कषायों से ग्रसित हो और क्षण भर में सुखी और क्षण भर में दुःखी बन जाता हो। माया, मिथ्या और शोक इन तीनों को शल्य कहा गया है। वादीगण इन्ही में उलझे रहते हैं। व्यक्ति इनके रहते विशुद्धावस्था को प्राप्त नहीं कर सकता। जिस प्रकार लाल रंग के कारण से दूसरा पट भी लाल दिखाई देता है अथवा रुधिरादि से साफ करने पर कपड़ा सफेद नहीं रह सकता। उसी प्रकार मिथ्यात्व से आवृत रहनेपर सम्यक् ज्ञानादिक गुणों की प्राप्ति नहीं की जा सकती।" पुद्गल अथवा पदार्थो से मोह रखना तथा पुद्गल और आत्मा को एक रूप मानना यही मिथ्याभ्रम है । आत्मा जब पुद्गल की दशा को मानने लगता है तभी उसमें कर्म और विभाव उत्पन्न होना प्रारम्भ हो जाते हैं। परिग्रहादिक बढ़ जाते हैं। मदिरापन किये बन्दर को यदि बिच्छू काट जाय तो जिस प्रकार वह उत्पाद करता है उसी प्रकार मिथ्याज्ञानी भी आत्मज्ञानी न होने के कारण भटकता रहता है। __कर्म रूपी रोग की दो प्रकृतियाँ होती हैं। एक कम्पन और दूसरी ऐंठना। शास्त्रीय परिभाषा में इन दोनों को क्रमशः पाप और पुण्य कहा गया है। विशुद्धात्मा इन दोनों से शून्य रहता है। पाप के समान पुण्य को भी जैन दर्शन में दुःख का कारण माना गया है क्योंकि वह भी एक प्रकार का राग है और राग मुक्ति का कारण हो नहीं सकता। यह अवश्य है कि दानपूजादिक शुभ भाव हैं जो शुद्धोपयोग को प्राप्त कराने में सहयोगी होते हैं। इसलिए बनारसीदास ने पुण्य को भी 'रोग' रूप मान लिया है। पाप से तापादिक रोग, चिन्ता, दुःख