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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
संसार की असारता को देखते हुए कविवर भगवतीदास संसारी से अभिमान छोड़ने को कहते हैं - 'छांडि दे अभिमान जियके छांडि दे।" राजा रंक आदि कोई कभी स्थिर रूप से यहां नहीं रहे। तुम्हारे देखते-देखते कितने लोग आये और गये। एक क्षण के विषय में भी कुछ कहा नहीं जा सकता। अतः चतुर्गति के भ्रमण में कारणभूत इन कर्मो को छोड़ने का प्रयत्न करो। पांडे रूपचन्द की आत्मा निजपद को भूलकर कर्मो के कारण संसार में जन्म मरण करने लगी। उसे तृष्णा की प्यास भी अधिक लगी -
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वषयन सेवते भये, तृष्णा ते न बुझाय, ज्यों जलखारा पीवतें, बाढे तृणाधिकाय । "
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कनककीर्ति ने भी कर्म घटावली में अष्टकर्मो के प्रभाव को स्पष्ट किया है।“ इस प्रभाव को साधक और गइराई से सोचता है कि वह किस प्रकार उसकी आत्मा के मूल गुणों का हनन करता है। भूधरदास 'देख्या बीज जहान के स्वप्ने का अजेब तमाशा रे । एको के घर मंगल गावै पूरी मन की आशा । एक वियोग मरे बहु रोवै भरि भरि नैन निरासा” कहकर कर्म के स्वभाव को अभिव्यक्त करते हैं । ४. मिथ्यात्व
मिथ्यात्व का तात्पर्य है अज्ञान और अज्ञान का तात्पर्य है धर्म विशेष के सिद्धान्तों पर विश्वास नहीं करना। मिथ्यात्व, अज्ञान, अविद्या, मिथ्याज्ञान, मिथ्यादृष्टि, आदि शब्द समानार्थक हैं। प्रत्येक धर्म और दर्शन ने इन शब्दों का प्रयोग लगभग समान अर्थों में किया है। उनके विश्लेषण की प्रक्रिया भले ही पृथक् रही हो। इसलिए हर समुदाय के साहित्य में इसके भेद - प्रभेद अपने-अपने ढंग से किये गये हैं। "
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