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रहस्यभावना के बाधक तत्त्व
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कर्म ही जीव को इधर से उधर त्रिभुवन में नचाता रहता है। ' बुधजन ही विधना की मोपै कहीं तो न जाय। सुलट उलट उलटी सुलटा दे अदरस पुनि दरसाय । ' कहकर कर्म की प्रबलता का दिग्दर्शन करते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि कर्मों की रेखा पाषाण रेखा-सी रहती है। वह किसी भी प्रकार टाली नहीं जा सकती । त्रिभुवन का राजा रावण क्षण भर में नरक में जा पड़ा। कृष्ण का छप्पन कोटि का परिवार वन में बिलखते-बिलखते मर गया। हनुमान की माता अंजना वन-वन रुदन करती रही, भरत बाहुबलि के बीच घनघोर युद्ध हुआ, राम और लक्ष्मण ने सीता के साथ वनवास झेला, महासती सीता को दधकती आग में कूदना पड़ा, महाबली पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी का चीर हरण किया गया, कृष्ण रुक्मणी का पुत्र प्रद्युम्न देवों द्वारा हर लिया गया। ऐसे सहस्रों उदाहरण हैं जो कर्मों की गाथा गाते मिलते हैं।" अष्टकर्मो को नष्ट किये बिना संसार का आवागमन समाप्त नहीं होता। इस पर चिन्तन करते हुए शरीरान्त हो जाने के बाद की कल्पना करता है और कहता है कि अब वे हमारे पांचों किसान (इन्द्रियाँ) कहां गये ? उनको खूब खिलाया पिलाया, पर वह सब निष्फल हो गया। चेतन अलग हो गया और इन्द्रियाँ अलग हो गई। ऐसी स्थिति में उससे मोहादि करने की क्या आवश्यकता? देखिये इसे कवि कलाकार ने कितने सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है.
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कित गये पंच किसान हमारे। कित० ।। टेक।। बोयो बीज खेत गयो निरफल, भर गये खाद पनारे । कपटी लोगों से साझाकर... हुए आप विचारे ||१|| आप दिवाना गह-गह बैठो लिख-लिख कागद डारे । बाकी निकसी पकरे मुकद्दम, पांचों हो गये न्यारे ।।२।। रुक गयो कंठ शब्द नहिं निकसत, हा हा कर्म सौ कारे । 'बनारस' या नगर न बविये, चल गये सींचन हारे । । ३ । । "
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