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________________ हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना प्रकार ज्वार के प्रकोप से भोजन में कोई रुचि नहीं रहती उसी प्रकार कुकर्म अथवा अशुभकर्म के उदय से धर्म के क्षेत्र में उसे कोई उत्साह जाग्रत नहीं होता। जब तक जीव का सम्बन्ध जड़ अथवा कर्मों से रहता है तब तक उसे दुःख ही दुःख भोगने पड़ते हैं - 218 " जब लगु मोती सीप महि तब लगु समु गुण जाइ । जब लगु जीयडा संगि जड, तब लग दूख सुहाई ।। ३९ वख्तराम साह का जीव इन कर्मों से भयभीत हो गया। वह इन्हीं कर्मों के कारण पर-पदार्थों में आसक्त रहा और भव-भव के दुःख भोगे । कर्मो से अत्यन्त दुःखी होकर वे कहते हैं कि ये कर्म मेरा साथ एक पल मात्र को भी नहीं छोड़ते।" भैया भगवतीदास तो करुणाद्र होकर कह उठते हैं, कि धुएं के समुदाय को देखकर गर्व कौन करेगा ? क्योंकि पवन के चले ही वह समाप्त हो जाने वाला है। सन्ध्या का रंग देखतेदेखते जैसे विलीन हो जाता है, दीपक-पतंग जैसे काल-कवलित हो जाता है, स्वप्न में जैसे कोई नृपति बन जाता है, इन्द्रधनुष जैसे शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, ओसबूंद जैसे धूप के निकलते ही सूख जाती है, उसी प्रकार कर्म जाल में फंसा मूढ जीव दुःखी बना रहता है । 'धूमन के घौरहर देख कहा गर्व करै, ये तो छिन माहिं जीहि पौन परसत ही । संध्या के समान रंग देखत ही होय भंग, दीपक पतंग जैसे काल गरसत ही ।। सुपने में भूप जैसे इन्द्र धनुरूप जैसे, ओस बूंद धूप जैसे दुरै दरसत ही । ऐसो ई भरम सब कर्म जालवर्गणा को, तामे मूढ मग्न होय मरै तरसत ही ।।" -
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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