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________________ 217 रहस्यभावना के बाधक तत्त्व को अलग कर कण को रख लेते हैं। इसमें कोठी के समान नोकर्ममल हैं। धान के समान द्रव्यकर्ममल हैं, चमी के समान भावकर्ममल तथा कण के समान भगवान हैं। पुद्गल के ये दो ही जाल हैं - द्रव्यकर्म और भावकर्म। सहजशुद्ध चेतन भावकर्म की ओर बसता है और द्रव्य कर्म नोकर्म से बंधा पुद्गल पिण्ड है।"भावकर्म के दो रूप हैं। ज्ञान और कर्म, ज्ञान चक्र चेतन के अन्तर में गुप्त और ज्ञानचक्र प्रत्यक्ष है। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि चेतन के ये दोनों भाव शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष के समान हैं, ज्ञान के कारण चेतन सजग बना रहता है और कर्म के कारण मिथ्याभ्रम में निद्रित रहता है । एक दर्शक है, दूसरा अंधा एक निर्जरा का कारण है, दूसरा बंध का।३५ जैनधर्म में कर्मो के आश्रव के कारण पांच माने गये हैं - मिथ्यात्व, अविरति (व्रताभाव), प्रमाद, कषाय (क्रोध, मान माया और लोभ) और योग (मन, वचन, काय की प्रवृत्ति)। दान पुण्यादिक कर्य शुभ कर्म के कारण हैं और हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि पाप अथवा अशुभ बन्ध के कारण हैं। कर्मो का बन्ध चार प्रकार का होता है - प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्ध। प्रकृतिबन्ध आठ प्रकार का है - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। इन कर्मो के भेद प्रभेदादि की भी चर्चा जैन शस्त्रों के अनुसार हिन्दीजैन कवियों ने बडी गइराई और विस्तार से की है। उस गहराई तक हम नहीं जाना चाहेंगे। हम यहां मात्र यह कहना चाहते हैं कि इन कर्मो के कारण जीव संसार में परिभ्रमण करता रहता है । जीव के सुख दुःख का प्रमुख कारण कर्म माना गया है। जिस प्रकार से तेज जल प्रवाह में भंवर चक्कर लगाता रहता है और उसमें फंस जाने वाला मृत्यु का शिकार हो जाता है उसी प्रकार कर्म का विपाक हो जाने पर जीव संसार के जन्ममरण के प्रवाह में विद्यमान कर्मरूप भंवर में फंस जाता है। जिस
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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