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________________ 216 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना भूतों पर जाता था तो किसी का ईश्वर पर, कोई अपने आपको देव के हाथ दे देता था तो कोई पुरुषार्थ को पकड़ता था। इन सभी वादों ने एकान्तिक दृष्टिकोण से विचार कर कर्म सिद्धान्त के स्थान पर स्वयं को आसीन कर लिया। परन्तु जैनदर्शन ने इस सभी को समन्वित रूप में स्वीकार किया गया है। तदनुसार सभी कारण मिलकर ही कार्य की निष्पत्ति करते हैं । इसी को सम्यक् धारणा कहा जाता है । " ३२ कर्मो का अस्तित्व, सुख-दुःख के वैविध्य, नवीन शरीर धारणा करने की प्रक्रिया तथा दानादिक क्रियाओं के फल में स्पष्टतः दिखाई देता है। समान साधन होने पर भी फल का तारतम्य अदृष्ट कर्म का ही परिणाम है। कर्म को जैनधर्म में मूर्तिक अथवा पौद्गलिक माना गया है और आत्मा को अमूर्तिक । अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्म सम्बन्ध आदिकाल से चला आ रहा है। इसी प्रकार शरीर और कर्म का सम्बन्ध भी बीजांकुर के समान अनादिकालीन है और वह कार्यकारण भावात्मक है। हमारे मन-वचन-काय की प्रत्येक क्रिया अपना संस्कार आत्मा और कर्म अथवा कार्माण शरीर पर छोड़ती जाती है। यह संस्कार कार्माण शरीर से बंधता चला जाता है और उसका जब परिपाक हो जाता है तो बंधे कर्म के उदय से यह आत्मा स्वयं हीनावस्था में पहुंच जाती है। फलतः राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व आदि विकारों से वह ग्रसित होता जाता है और वह अपने अनन्त ज्ञानादि रूप विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त नहीं कर पाता । पुराने कर्म निर्जीर्ण होते जाते हैं और नये कर्म बंधते चले जाते हैं। आत्मा और कर्म की यही परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। शास्त्रीय परिभाषा में पुद्गल परमाणुओं के पिण्ड रूप कर्म को द्रव्य कर्म और राग द्वेषादिक प्रवृत्तियों को भाव कर्म, और शरीर रूप कर्म को नोकर्म कहा गया है। बनारसीदास ने इसे एक उदाहरण देकर स्पष्ट किया है। मान लीजिए जिस प्रकार कोठी में धान रखी है, धान के भीतर कण है तो उस धान अज्ञान
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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