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रहस्यभावना के बाधक तत्त्व
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आने पर कोई भी अपने आपको बचा नहीं पाता, इसलिए उससे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं बल्कि आत्मचिंतन करके जन्ममरण के दुःखों से मुक्त हो जाना ही श्रेयस्कर है - 'काल अचानक ही ले जायेगा, गाफिल होकर रहना क्या रे ! छिन हूँ तोको नाहिं बचाबै तो सुमटन को रखना क्या रे” (बुधजन विलास, पद ५)
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शरीर की इस नश्वरता का आभास साधक प्रतिपल करता है और साधनात्मक प्रवत्ति में शुद्ध स्वभावी चैतन्य की भावना भाता है। मृत्यु एक अटल तथ्य है जिसमें शरीर भग्न हो जाता है मात्र स्वस्थ चेतन रह जाता है।
३. कर्मजाल
प्रत्येक व्यक्ति अथवा साधक के सुख-दुःख का कारण उसके स्वयंकृत कर्म हुआ करते हैं। भारतीय धर्म साधनाओं में चार्वाक को छोड़कर प्रायः सभी विचारकों ने कर्म को संसार में जन्म मरण का कारण ठहराया है । यह कर्म परम्परा जीव के साथ अनादिकाल से जुड़ी हुई है। जैन चिन्तकों ने ईश्वर के स्थान पर कर्म को संस्थापित किया है। तदनुसार स्वयंकृत कर्मो का भोक्ता जीव स्वयं ही होता है, चाहे वे शुभ हों या अशुभ। इसलिए जन्म-परम्परा तथा सुख-दुःख की असमानता में ईश्वर का कोई रोल यहां स्वीकार नहीं किया गया । जीव फल भोगने में जितन परतंत्र है उतना ही नवीन कर्मों के उपार्जन करने में स्वतन्त्र भी है।
प्राचीन भारतीय साहित्य के देखने से ऐसा लगता है कि उस समय कर्म के समकक्ष अनेक सिद्धान्त खड़े कर दिये गये थे। उस समय कोई काल को विश्व का नियन्त्रक मानता था तो कोई स्वभाव को, कोई नियति को आगे लाता था तो कोई यदृच्छा को, किसी का ध्यान