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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
अन्त में कवि अनुभूतिपूर्ण शब्दों में कहता है, रे विद्वन्, संसार की इसी असारता को देखकर अन्य लोग मोक्ष मार्ग के अनुगामी बने । तुम भी यदि कर्मो से मुक्ति चाहते हो तो इस क्षणिक संसार से विरक्त हो जाओ और जिनराज के द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलना प्रारम्भ कर दो -
मत राचौ धी- धारी ।
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भंवरभ्रमरसर जानके, मत राचौ धी धारी ।। इन्द्रजाल कौ ख्याल मोह ठक विभ्रम पास पसारी । चहुगति विपतिमयी जामें जन, भ्रमत भरत दुख भारी ।। रामा मा, मो बामा, सुत पितु, सुता श्वसा, अवतारी । कौ अचंभ जहाँ आप आपके पुत्रदशा विस्तारी ।। घोर नरक दुख और न घोर न लेश न सुख विस्तारी ।। सुर नर प्रचुर विषय जुरजारे, को सुखिया संसारी ।। मंडल है अखंडल छिन में, नृप कृमि, सघन भिखारी । जा सुत - विरह मरी है वाधिनि, ता सुत देह विदारी ।। शिशु न हिताहित ज्ञान, तरु उर मदन दहन परजारी । वृद्ध भये विकलांगी थाये, कौन दशा सुखकारी ।। यों असार लख छार भव्य झट गये मोख - मग चारी । यातैं होहु उदास ‘दौल' अब, भज जिनपति जगतारी ।।
संसार का सुन्दर चित्रण जैन कथा साहित्य में मधुबिन्दु कथा के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। एक व्यक्ति घनघोर जंगल में भूल गया । वह भयभीत होकर भटकता रहा। इतने में एक गज उसी की और दौड़ता दिखाई दिया। उसके भय से वह समीपवर्ती कुए में कूद पड़ा। कुए के किनारे लगे वटवृक्ष की शाखा को कूदते समय पकड़ लिया । उसमें मधुबिन्दुओं का छाता लगा हुआ था। उसकी बूंदों में उसकी