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________________ रहस्यभावना के बाधक तत्त्व 207 से पड़े रहकर दुःख भोग रहा है । उसे ज्ञान-कुसुमों की शय्या को प्राप्त करने का सौभाग्य हुआ ही नहीं। स्वयं में रहने वाले सुधा-सरोवर को देखा नहीं जिसमें स्थान करने से सभी दुःख दूर हो जाते हैं। कविवर दौलतराम का हृदय संसार की विनश्वरता को देखकर करुणाद्र हो जाता है और कह उठता है कि अरे विद्वन्। तुम इस संसार' में रमण मत करो। यह संसार केले के तने के समान असार है। फिर भी हम उसमें आसक्त हो जाते हैं क्योंकि मोह के इन्द्रजाल में हम जकड़े हुए हैं। फलतः चतुर्गतियों में जन्म-मरण के दुःख भोग रहे हैं। इस दुःख को अधिक व्यक्त करने के लिए कवि ने पारिवारिक सम्बन्धों की अनित्यता का सुन्दर-चित्रण किया है। उन्होंने कहा कि कभी जो अपनी पत्नी थी वह माता बन जाती है, माता पत्नी बन जाती है, पुत्र पिता बन जाता है, पुत्री सास बन जाती है। इतना ही नहीं, जीव स्वयं का पुत्र बन जाता है। इसके अतिरिक्त उसने नरक पर्याय के घोर दुःखों को सहा है जिसका कोई अन्त नहीं रहा। उसे सुख वहां है कहां ! रे विद्वन् ! सुर और मनुष्य की प्रचुर विषय लिप्सा से भी तुम परिचित हो तो बताओ, कौन-सा संसार जीव सुखी है ? संसार की क्षणभंगुरता को भी तुमने परखा है। वहां महान् ऐश्वर्य और समृद्धि क्षण भर में नष्ट हो जाती है। इन्द्र जैसा ऐश्वर्यशाली तो जीव भी कुक्कुर हो जाता है, नृप कृमि बन जाता है, धन सम्पन्न भिखारी बन जाता है और तो क्या ! जो माता पुत्र के वियोग में मरकर व्याघ्रिणी बनी, उसी ने अपने पुत्र के शरीर के खण्ड-खण्ड कर दिये। कवि उनसे फिर कहता है कि मनुष्य को बाल्यवस्था में हिताहित का ज्ञान नहीं रहता और तरुणावस्था में हृदय कामाग्नि से दहकता रहता है तथा वृद्धावस्था में अंग-प्रत्यंग विकल हो जाते हैं, तब बताओ, संसार में कौन-सी दशा सुखदायी है?
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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