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________________ 204 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना संसारी जीव अपनी आदतों से अत्यन्त दुःखी हो जाता है। वह न तो किसी प्रकार पंच पापों से मुक्त हो पाता है और न चार विकथाओं से। मन, वचन, काय को भी वह अपने वश नहीं कर पाता, राग द्वेषादिक जम जाते हैं, आत्म-ज्ञान हो नहीं पाता। ऐसी स्थिति में जगतराम कवि त्रस्त-सा होकर कहते हैं - 'मेरी कौन गति होगी हे गुसाई ।। द्यानतराय को तो यह सारा संसार बिल्कुल मिथ्या दिखाई देता है। वे अनुभव करते हैं कि जिस नश्वर देह को हमने अपना प्रिय माना और जिसे हम सभी प्रकार के रसपाकों से पोषते रहे, वह कभी हमारे साथ चलता नहीं, तब अन्य पदार्थो की बात क्या सोंचे? सुख के मूल स्वरूप को तो देखा समझा ही नहीं। व्यर्थ में मोह करता है। आत्मज्ञान को पाये बिना असत्य के माध्यम से जीव द्रव्यार्जन करता, असत्य साधना करता, यमराज से भयभीत होता 'मैं' और 'मेरा' की रट लगाता संसार में घूमता फिरता है । इसलिए संसार की विनाशशीलता देखते हुए वे संसारी जीवों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं। 'मिथ्या यह संसार हैरे, झूठा यह संसाररे।" दौलतराम ने भी संसार को 'धोके की टाटी' कहा है और बताया है कि संसारी जीव जानबूझकर अपनी आंखों पर पट्टी बांधे हुए है। उसे समझाते हुए वे कहते हैं कि तेरे प्राण क्षण में निकल जायेंगे, तो तेरी यह मिट्टी यहीं पड़ी रह जायेगी। अतः अन्तःकपाट खोल ले और मन को वश में कर ले। संसारी जीव अनंतकाल से संसार में जन्म-मरण के चक्कर लगा रहा है, उत्पन्न होने से मरने तक दुःखदाह में जलता रहता है। भक्त कवि द्यानतराय को माता, पिता, पुत्र पत्नी आदि सभी स्वार्थाध दिखाई देते हैं। शरीर का रतिभाव कवि को और भी
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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